संदेश
व्यर्थ नहीं - कविता - सिद्धार्थ गोरखपुरी
आसान सी भाषा का कठिन शब्द दूजे की निगाह का ज्ञान लब्ध मेरा वैसे कोई अर्थ नहीं पर ज्ञान के माफिक... व्यर्थ नहीं। समरथ है बस नाम का समरथ…
शौचालय - अवधी गीत - संजय राजभर 'समित'
नाही शौचालय त् नाही गवनवा, मोरे सजनवा हे! मोरे सजनवा बनवा दीं बेचके गहनवा। नारी के सिंगार हऊवे, नारी के हया। ऐकरा बचा लीं राजा, ब…
थोड़े से सुख - कविता - सुरेन्द्र प्रजापति
मेरे पास थोड़े से सुख हैं बिल्कुल सफ़ेद पत्थरों की तरह कुछ काले चीकने कंकड़ जिसे सहेजता हूँ रोज़ एक परम्परा का निर्वाह करते हुए माँ बतलाई …
पाऊँगा लक्ष्य - हाइकु - शिव शरण सिंह चौहान 'अंशुमाली'
१ पाऊँगा लक्ष्य बाधाओं को चुनौती दृढ़ संकल्प। २ पत्नी जीवन जैसे रेगिस्तान में नखलिस्तान। ३ अर्द्धांगिनी है जलती दीपशिखा जीवन-पथ। ४ कवि…
प्रेम - कविता - गणेश दत्त जोशी
सोचा भी नहीं न देखा है, मिला भी नहीं पर कोई गिला भी नहीं है, हाँ सच तो यही है वो जैसा भी है मेरा ही तो है। मेरे रोम-रोम में, मन के विस…
गहरी उदासी - कविता - प्रवीन 'पथिक'
तूफ़ान के थपेड़ों के बीच, फँसी मेरी ज़िंदगी! चाहती है आज़ादी; ताकि विचर सके स्वच्छंद आकाश में। बादलों के पीछे, जहाॅं कोई देख न सके। वाग…
जहाँ तक मुझे आ रहा है नज़र - ग़ज़ल - रज्जन राजा
अरकान : फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़ऊलुन फ़अल तक़ती : 122 122 122 12 जहाँ तक मुझे आ रहा है नज़र, न छाया बची है न कोई शजर। तपिस से बचेगा नहीं अब कहीं,…
बुद्ध पूर्णिमा - कविता - रतन कुमार अगरवाला 'आवाज़'
भगवान विष्णु के नवें अवतार, दिव्य शक्ति के आधार, संसार को किया था प्रकाशमय, बुद्ध थे ज्ञान के भंडार। वैशाख माह की पूर्णिमा, मनाते इस द…
ओ हंसिनी - कविता - सुनील शर्मा 'सारथी'
तेरे रूप का क्या बखान करूँ, तुम सुंदरता की मुरत हो, मृगनयनी सी आँखो वाली, चंचल और ख़ूबसूरत हो, गुलाब पंखुड़ी जैसे अधर और नेत्र तुम्हारे…
अंतिम सच - कविता - विक्रांत कुमार
अंतिम सच कुछ नहीं होता है ढूँढ़ते रहिए जीवन की संगीन परिकल्पनाओं में अपने सुख के दिन की व्याख्या ज़रूरत की तमाम चीज़ों पर निश्चिताओं का स…
जन्मों-जन्मों तक - कविता - जितेंद्र रघुवंशी 'चाँद'
रहे जीवन में ऐसी हलचल, चाँद की तरह बढ़ता रहे पल पल। ना हो दुखों से कभी तेरा सामना, माँगूँ मैं तो रब से यही कामना। जन्मों-जन्मों तक जन्…
बाबा बैद्यनाथ धाम - गीत - डॉ॰ रवि भूषण सिन्हा
ज्योतिर्लिंगों में है, एक लिंग, है वो बाबा बैद्यनाथ धाम। बाबा बैद्यनाथ धाम 2 मनोकामना लिंगों में है, एक लिंग, है वो बाबा बैद्यनाथ धाम।…
छप रहे हैं इतने क़िस्से रोज़ भ्रष्टाचार के - ग़ज़ल - श्याम सुन्दर अग्रवाल
छप रहे हैं इतने क़िस्से रोज़ भ्रष्टाचार के, हाशिये तक पर नहीं हैं गीत अब सिंगार के। ख़ून की होली की ख़बरें सुर्ख़ हैं इतनी यहाँ, रँग भी उड़न…
मैं मज़दूर - कविता - प्रमोद कुमार
बीती रात हुई सुबह की बेला, जीने का फिर वही झमेला, निकल पड़ा सिर बाँध अँगोछी, कमाने घर-परिवार से दूर। मैं मज़दूर, बेबस मजबूर! हिम्मत के …
जो ज़ुबाँ बेज़ुबान होती है - ग़ज़ल - भाऊराव महंत
जो ज़ुबाँ बेज़ुबान होती है, वो मरे के समान होती है। गर दग़ा एक बार खा लेती, ज़िंदगी सावधान होती है। तीर उसके इशारों पे चलते, हाथ जिसके कमा…
मैं महत्त्वपूर्ण हूँ - कविता - डॉ॰ रेखा मंडलोई 'गंगा' | मज़दूरों पर कविता
मज़दूर दिवस पर मज़दूर वर्ग भी समाज में महत्वपूर्ण हैं इस सम्मान की भावना के साथ उनके महत्व को दर्शाती कविता। कहने को मैं मज़दूर दीन हीन स…
लबों पे आया तेरा नाम जाने क्या बात है - ग़ज़ल - दिलीप सिंह यादव
अरकान : मुस्तफ़इलुन मुस्तफ़इलुन मुफ़ाईलु फ़ाइलुन तक़ती : 2212 2212 1221 212 लबों पे आया तेरा नाम जाने क्या बात है, सपने में मैंने देखा…
तुम अपना मृत्यु चुनो - कविता - सुरेन्द्र प्रजापति
अचानक आधी रात को मैं जगा उस जागने में पहले जैसी निश्चिंतता नहीं थी न कोई कारण जैसे सब कुछ हुआ हो अकारण ही, बल्कि गहन रात्रि के सन्ना…
महँगी मिशाल - कविता - महेश कुमार हरियाणवी
सुर में ना ताल है, वन में ना छाल है। गैस नहीं जल रही, बिगड़ा-सा हाल है। पिचक गए गाल है, दिखते कंकाल है। जल सारा जल गया, ग़लती ना दाल है।…
एक कविता मेरी भी - कविता - गणेश दत्त जोशी
छपने तो दो एक कविता मेरी भी, अभी-अभी तो अंकुरित हुआ है भावनाओं का उद्वेक सीने में, कुछ सुन तो लो मेरी भी छपने तो दो एक कविता मेरी भी। …
किंकर्तव्यविमूढ़ - कविता - संजय राजभर 'समित'
कुछ बातें अंदर ही अंदर ज्वालामुखी की तरह उमस करती है तोड़ धरा की परतें बाहर निकलने को तत्पर रहती है किंकर्तव्यविमूढ़ कहूँ या न …
प्रथम वैवाहिक वर्षगाँठ - दोहा छंद - डॉ॰ राम कुमार झा 'निकुंज'
कवि डॉ॰ राम कुमार झा 'निकुंज' के परम सौभाग्यवती बेटू अनीशा कीर्ति आ परम सारस्वत जामाता श्री विवेक पाराशर बाबू (ओझा जी) के प्रथ…
तन्हाई ने घेरा है - नवगीत - अविनाश ब्यौहार
कितने रौशनदान खुले हैं, फिर भी तम का डेरा है। बिरवा सूखता है रिश्तों का। अटूट सिलसिला है किस्तों का॥ पल भर को भी नींद न आए, कैसा रैन …
रहने दो अभी - कविता - नौशीन परवीन
रहने दो अभी रहने दो अभी फ़िलहाल मुझे किसी का प्रेम स्वीकार नहीं करना ना गोपनीय ना उजागर व्यर्थ विषाद में डूबकर अपना उन्मुक्त भरा जीवन…
हर पड़ाव बदला रंगशाला में - कविता - आशीष कुमार
ज़िम्मेदारियाँ बख़ूबी निभाई, यहाँ तरह-तरह की शाला में। एक उम्र में कई पड़ाव देखे, हर पड़ाव बदला रंगशाला में। जब तक थोड़ा नटखटपन जागा, हम…
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