एक कविता मेरी भी - कविता - गणेश दत्त जोशी

छपने तो दो एक कविता मेरी भी,
अभी-अभी तो अंकुरित हुआ है भावनाओं का उद्वेक सीने में,
कुछ सुन तो लो मेरी भी
छपने तो दो एक कविता मेरी भी।
हाँ सौभाग्यशाली नहीं मैं इतना कि मर्म में चोट कर जाऊँ,
बदलेगी नहीं दुनिया जानता हूँ,
कब कहा मैंने, सबके हृदय में घर कर जाऊँ?
सबकी सुनते हो मन से,
झूठ ही सही, रख दो मेरा मन भी कभी,
छपने तो दो एक कविता मेरी भी।
हृदय की नाज़ुक गली में, कुछ उकेर रहा हूँ,
मैं जन्म जन्मों से ख़ुद को पहचानने की कोशिश कर रहा हूँ,
साथ दो ना मेरा...
अपना, पराया, मेरा, तेरा 
सारी शिकायत छोड़,
आओ एक दूसरे को समझने तो दो अभी।
छपने तो दो एक कविता मेरी भी।

गणेश दत्त जोशी - वागेश्वर (उत्तराखंड)

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