दुष्यंत कुमार की 10 चुनिंदा ग़ज़लें | Dushyant Kumar 10 Best Ghazals
शुक्रवार, सितंबर 01, 2023
(1) ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दोहरा हुआ होगा
ये सारा जिस्म झुक कर बोझ से दोहरा हुआ होगा,
मैं सज्दे में नहीं था आप को धोका हुआ होगा।
यहाँ तक आते आते सूख जाती है कई नदियाँ,
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा।
ग़ज़ब ये है की अपनी मौत की आहट नहीं सुनते,
वो सब के सब परेशाँ हैं वहाँ पर क्या हुआ होगा।
तुम्हारे शहर में ये शोर सुन सुन कर तो लगता है,
कि इंसानों के जंगल में कोई हाँका हुआ होगा।
कई फ़ाक़े बिता कर मर गया जो उस के बारे में,
वो सब कहते हैं अब ऐसा नहीं ऐसा हुआ होगा।
यहाँ तो सिर्फ़ गूँगे और बहरे लोग बस्ते हैं,
ख़ुदा जाने यहाँ पर किस तरह जल्सा हुआ होगा।
चलो अब यादगारों की अँधेरी कोठरी खोलें,
कम-अज़-कम एक वो चेहरा तो पहचाना हुआ होगा।
(2) मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ
मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूँ,
वो ग़ज़ल आप को सुनाता हूँ।
एक जंगल है तेरी आँखों में,
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ।
तू किसी रेल सी गुज़रती है,
मैं किसी पुल सा थरथराता हूँ।
हर तरफ़ ए'तिराज़ होता है,
मैं अगर रौशनी में आता हूँ।
एक बाज़ू उखड़ गया जब से,
और ज़ियादा वज़न उठाता हूँ।
मैं तुझे भूलने की कोशिश में,
आज कितने क़रीब पाता हूँ।
कौन ये फ़ासला निभाएगा,
मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ।
(3) वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है
वो आदमी नहीं है मुकम्मल बयान है,
माथे पे उस के चोट का गहरा निशान है।
वो कर रहे हैं इश्क़ पे संजीदा गुफ़्तुगू,
मैं क्या बताऊँ मेरा कहीं और ध्यान है।
सामान कुछ नहीं है फटे-हाल है मगर,
झोले में उस के पास कोई संविधान है।
उस सर-फिरे को यूँ नहीं बहला सकेंगे आप,
वो आदमी नया है मगर सावधान है।
फिस्ले जो उस जगह तो लुढ़कते चले गए,
हम को पता नहीं था कि इतनी ढलान है।
देखे हैं हम ने दौर कई अब ख़बर नहीं,
पाँवों तले ज़मीन है या आसमान है।
वो आदमी मिला था मुझे उस की बात से,
ऐसा लगा कि वो भी बहुत बे-ज़बान है।
(4) हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए।
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए।
सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
(5) कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हरेक घर के लिए
कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हरेक घर के लिए,
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए।
यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है,
चलो यहाँ से चलें और उम्र भर के लिए।
न हो क़मीज़ तो पाँवों से पेट ढँक लेंगे,
ये लोग कितने मुनासिब हैं, इस सफ़र के लिए।
ख़ुदा नहीं, न सही, आदमी का ख़्वाब सही,
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिए।
वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता,
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिए।
तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान शाइर की,
ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए।
जिएँ तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले,
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।
(6) तुम्हारे पाँवों के नीचे कोई ज़मीन नहीं
तुम्हारे पाँवों के नीचे कोई ज़मीन नहीं,
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं।
मैं बे-पनाह अँधेरों को सुब्ह कैसे कहूँ,
मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं।
तिरी ज़बान है झूटी जम्हूरियत की तरह,
तू इक ज़लील सी गाली से बेहतरीन नहीं।
तुम्हीं से प्यार जताएँ तुम्हीं को खा जाएँ,
अदीब यूँ तो सियासी हैं पर कमीन नहीं।
तुझे क़सम है ख़ुदी को बहुत हलाक न कर,
तू इस मशीन का पुर्ज़ा है तू मशीन नहीं।
बहुत मशहूर है आएँ ज़रूर आप यहाँ,
ये मुल्क देखने लाएक़ तो है हसीन नहीं।
ज़रा सा तौर-तरीक़ों में हेर-फेर करो,
तुम्हारे हाथ में कॉलर हो आस्तीन नहीं।
(7) मत कहो, आकाश में कुहरा घना है
मत कहो, आकाश में कुहरा घना है,
यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।
सूर्य हमने भी नहीं देखा सुबह से,
क्या करोगे, सूर्य का क्या देखना है।
इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है,
हर किसी का पाँव घुटनों तक सना है।
पक्ष औ’ प्रतिपक्ष संसद में मुखर हैं,
बात इतनी है कि कोई पुल बना है।
रक्त वर्षों से नसों में खौलता है,
आप कहते हैं क्षणिक उत्तेजना है।
हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
शौक़ से डूबे जिसे भी डूबना है।
दोस्तो! अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में संभावना है।
(8) ये सच है कि पाँवों ने बहुत कष्ट उठाए
ये सच है कि पाँवों ने बहुत कष्ट उठाए,
पर पाँव किसी तरह से राहों पे तो आए।
हाथों में अँगारों को लिए सोच रहा था,
कोई मुझे अंगारों की तासीर बताए।
जैसे किसी बच्चे को खिलौने न मिले हों,
फिरता हूँ कई यादों को सीने से लगाए।
चट्टानों से पावँ को बचा कर नहीं चलते,
सहमे हुए पावँ से लिपट जाते हैं साए।
यूँ पहले भी अपना सा यहाँ कुछ तो नहीं था,
अब और नज़ारे हमें लगते हैं पराए।
(9) जाने किस किस का ख़याल आया है
जाने किस किस का ख़याल आया है,
इस समुंदर में उबाल आया है।
एक बच्चा था हवा का झोंका,
साफ़ पानी को खँगाल आया है।
एक ढेला तो वहीं अटका था,
एक तू और उछाल आया है।
कल तो निकला था बहुत सज-धज के,
आज लौटा तो निढाल आया है।
ये नज़र है कि कोई मौसम है,
ये सबा है कि वबाल आया है।
हम ने सोचा था जवाब आएगा,
एक बेहूदा सवाल आया है।
(10) कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए
कहीं पे धूप की चादर बिछा के बैठ गए,
कहीं पे शाम सिरहाने लगा के बैठ गए।
जले जो रेत में तलवे तो हम ने ये देखा,
बहुत से लोग वहीं छट-पटा के बैठ गए।
खड़े हुए थे अलावों की आँच लेने को,
सब अपनी अपनी हथेली जला के बैठ गए।
लहू-लुहान नज़ारों का ज़िक्र आया तो,
शरीफ़ लोग उठे दूर जा के बैठ गए।
ये सोच कर कि दरख़्तों में छाँव होती है,
यहाँ बबूल के साए में आ के बैठ गए।
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