किंकर्तव्यविमूढ़ - कविता - संजय राजभर 'समित'

कुछ बातें 
अंदर ही अंदर 
ज्वालामुखी की तरह 
उमस करती है 
तोड़ धरा की परतें 
बाहर निकलने को तत्पर रहती है 
किंकर्तव्यविमूढ़ 
कहूँ या न कहूँ! 

कुछ बातें 
बिना सुने ही 
झकझोर देती है 
कविगत भाव 
अमुक अंतः भाव 
आहिस्ते से सुन लेती है 
अब उस अमुक से 
सुनूँ या न सुनूँ। 

पर सभी बातें 
चुपके से 
मेरी कविता में उतर आती है। 


Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos