तुम अपना मृत्यु चुनो - कविता - सुरेन्द्र प्रजापति

अचानक आधी रात को मैं जगा
उस जागने में पहले जैसी निश्चिंतता नहीं थी 
न कोई कारण जैसे सब कुछ हुआ हो अकारण ही, 
बल्कि गहन रात्रि के सन्नाटे को चिरती एक भयानक कातरता थी
मेरे घर के पीछे गली में वारदातों में लिप्त क्रूर क़दमों की आहटें

उन आहटों में चट्टानी कठोरता और वहशीपन की ललकार थी
एक शोर जो मुझे चारों तरफ़ से घेरे जा रहा था
एक भय जो मुझे यातना की हद तक डरा रहा था
एक त्रासदी जो हमारे काँपते गणतंत्र को धमका रहा था।

आख़िरकार डर की विवशता ने मुझे चौकाया 
बंद कमरे में आग की लपटें लपकती है
घर के बाहर शोलें उबलते हैं
मौत मुझे चौकस करती है–
"तुम अपना मृत्यु चुनो!"
बेड़ियों में जकड़े कायर मरते हैं
तुम तो सम्पूर्ण इंसान हो, 

मैं अब मुस्कुरा रहा हूँ, 
अपने सहमे हुए सोच पर, 
अपने बनाए निरस लोक पर।

सुरेंद्र प्रजापति - बलिया, गया (बिहार)

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