व्यर्थ नहीं - कविता - सिद्धार्थ गोरखपुरी

आसान सी भाषा का कठिन शब्द
दूजे की निगाह का ज्ञान लब्ध
मेरा वैसे कोई अर्थ नहीं
पर ज्ञान के माफिक... व्यर्थ नहीं।

समरथ है बस नाम का समरथ
जैसे प्रकाश के समक्ष ओजोन परत
अवशोषित करने की अल्प समझ
पूरा सोखूँ... इतना समर्थ नहीं
मेरा वैसे कोई अर्थ नहीं
पर ज्ञान के माफिक... व्यर्थ नहीं।

मुसलसल सवालों का ठहरा जवाब
ज़ेहन में रखा है अनगिनत ख़्वाब
व्याख्या है बस जीवन अपना
जिसमे अब भी सन्दर्भ नहीं
मेरा वैसे कोई अर्थ नहीं
पर ज्ञान के माफिक... व्यर्थ नहीं।

मैं भाव का बहता हूँ कलकल
फिर करते हैं कई सवाल विकल
न भाव का कोई स्थायीकरण मेरे 
और....पूर्णता में भी तदर्थ नहीं
मेरा वैसे कोई अर्थ नहीं
पर ज्ञान के माफिक... व्यर्थ नहीं।

सिद्धार्थ गोरखपुरी - गोरखपुर (उत्तर प्रदेश)

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