मेरे पास थोड़े से सुख हैं
बिल्कुल सफ़ेद पत्थरों की तरह
कुछ काले चीकने कंकड़
जिसे सहेजता हूँ रोज़
एक परम्परा का निर्वाह करते हुए
माँ बतलाई थी ये ठाकुर जी हैं।
एक पुराने संदूक में दीमको का साम्राज्य है,
गीता है, कुछ परम्पराएँ हँसती है
मेरे पास इच्छाओ का पिटारा है और वक़्त की नाज़ुक छड़ी
जिसे लेकर टहल रहा हूँ पीड़ा के रेगिस्तान में।
विस्मृत कर दिए धुँओं में
कुछ धुँधले अतीत हैं
कराहती हुई कहानियाँ
कुढ़ती हुई सोहर
पिघलती हुई करुणा से भीगें गीत।
सड़ते हुए बाँस बल्लियों की महक से बसा
एक अनुभूतियों का खंडहर मेरे सामने है
मेरी आदिम सभ्यता का अक्स
मेरा ईमानदार पसीना यहीं गिरकर खो गया।
मेरे पूर्वजों का स्वप्न
मेरे स्वप्न से सन्धि करता
मुझे ही उकसा रहा था, भड़का रहा है
और मेरे पास अनंत सपनों की उदासी है
मेरी ही आत्मा को लहूलुहान करते।
सुरेंद्र प्रजापति - बलिया, गया (बिहार)