फ़िराक़ गोरखपुरी उर्दू भाषा के प्रमुख शायरों में से एक थे। उनका असल नाम रघुपति सहाय था। उनका जन्म 28 अगस्त, 1896 को भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के गोरखपुर शहर में हुआ था। वे उर्दू शायरी के क्षेत्र में अपनी विशेष पहचान बनाने वाले महत्वपूर्ण शख़्सियत माने जाते हैं।
प्रस्तुत है फ़िराक़ गोरखपुरी जी के कुछ बेहतरीन शेर
मुझ को मारा है हर इक दर्द ओ दवा से पहले
दी सज़ा इश्क़ ने हर जुर्म-ओ-ख़ता से पहले
अब तो उन की याद भी आती नहीं
कितनी तन्हा हो गईं तन्हाइयाँ
अगर बदल न दिया आदमी ने दुनिया को
तो जान लो कि यहाँ आदमी की ख़ैर नहीं
अहबाब से रखता हूँ कुछ उम्मीद-ए-ख़ुराफ़ात
रहते हैं ख़फ़ा मुझ से बहुत लोग इसी से
अक़्ल में यूँ तो नहीं कोई कमी
इक ज़रा दीवानगी दरकार है
असर भी ले रहा हूँ तेरी चुप का
तुझे क़ाइल भी करता जा रहा हूँ
बहसें छिड़ी हुई हैं हयात ओ ममात की
सौ बात बन गई है 'फ़िराक़' एक बात की
बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं
छलक के कम न हो ऐसी कोई शराब नहीं
निगाह-ए-नर्गिस-ए-राना तिरा जवाब नहीं
एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं
तो एक था मिरे अशआ'र में हज़ार हुआ
उस इक चराग़ से कितने चराग़ जल उठे
'फ़िराक़' दौड़ गई रूह सी ज़माने में
कहाँ का दर्द भरा था मिरे फ़साने में
हम से क्या हो सका मोहब्बत में
ख़ैर तुम ने तो बेवफ़ाई की
इक उम्र कट गई है तिरे इंतिज़ार में
ऐसे भी हैं कि कट न सकी जिन से एक रात
इसी खंडर में कहीं कुछ दिए हैं टूटे हुए
इन्हीं से काम चलाओ बड़ी उदास है रात
जो उन मासूम आँखों ने दिए थे
वो धोके आज तक मैं खा रहा हूँ
कहाँ हर एक से बार-ए-नशात उठता है
बलाएँ ये भी मोहब्बत के सर गई होंगी
खो दिया तुम को तो हम पूछते फिरते हैं यही
जिस की तक़दीर बिगड़ जाए वो करता क्या है
ख़ुश भी हो लेते हैं तेरे बे-क़रार
ग़म ही ग़म हो इश्क़ में ऐसा नहीं
कोई आया न आएगा लेकिन
क्या करें गर न इंतिज़ार करें
कोई समझे तो एक बात कहूँ
इश्क़ तौफ़ीक़ है गुनाह नहीं
मैं आज सिर्फ़ मोहब्बत के ग़म करूँगा याद
ये और बात कि तेरी भी याद आ जाए
मेरी घुट्टी में पड़ी थी हो के हल उर्दू ज़बाँ
जो भी मैं कहता गया हुस्न-ए-बयाँ बनता गया
न कोई वा'दा न कोई यक़ीं न कोई उमीद
मगर हमें तो तिरा इंतिज़ार करना था
रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गए
वाह-री ग़फ़लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम
समझना कम न हम अहल-ए-ज़मीं को
उतरते हैं सहीफ़े आसमाँ से
तारा टूटते सब ने देखा ये नहीं देखा एक ने भी
किस की आँख से आँसू टपका किस का सहारा टूट गया
तबीअत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तिरी यादों की चादर तान लेते हैं
उसी दिल की क़िस्मत में तन्हाइयाँ थीं
कभी जिस ने अपना पराया न जाना
उसी की शरह है ये उठते दर्द का आलम
जो दास्ताँ थी निहाँ तेरे आँख उठाने में