हर पड़ाव बदला रंगशाला में - कविता - आशीष कुमार

ज़िम्मेदारियाँ बख़ूबी निभाई,
यहाँ तरह-तरह की शाला में।
एक उम्र में कई पड़ाव देखे,
हर पड़ाव बदला रंगशाला में।

जब तक थोड़ा नटखटपन जागा,
हम भेज दिए गए पाठशाला में।
गुरुजन से समझदारी पा कर,
फिर उलझे रहे प्रयोगशाला में।

रंग भरने की जब उमंग जगी,
हम पहुँच गए चित्रशाला में।
निशानियाँ मिलेंगी दीवारों पर,
जो छोड़ी है अतिथिशाला में।

जब जवानी मूँछों संग आई,
डोले बनाए व्यायामशाला में।
मनोरंजन की जब तलब लगी,
गए कई दफ़ा नृत्यशाला में।

धू-धू कर जब इश्क़ में जले,
मानो दिल बदला अग्निशाला में।
फिर शामों की गिनती नहीं,
जो बीत गई मधुशाला में।

एक पड़ाव ऐसा भी आया,
रोगों ने दौड़ाया आरोग्यशाला में।
ग्रह नक्षत्र सब उल्टे पड़ गए,
उपाय न मिला वेधशाला में।

तीर्थाटन की उम्र है बीती,
मंदिर-मंदिर धर्मशाला में।
अंतिम पड़ाव अब ले आया,
लिपटे राम भरोसे दुशाला में।

जीवन अभिनय सच्चा रहा,
दुनिया की इस कर्मशाला में।
एक उम्र में कई पड़ाव देखे,
हर पड़ाव बदला रंगशाला में।


Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos