अंतिम सच कुछ नहीं होता है
ढूँढ़ते रहिए
जीवन की संगीन परिकल्पनाओं में अपने सुख के दिन की व्याख्या
ज़रूरत की तमाम चीज़ों पर निश्चिताओं का सघन पहरा
कुछ काम ना आएगा
शाश्वत के द्विअर्थी शब्दों का सब खेला है
आदमी यहाँ ठेला है
ढोते रहिए – ढोते रहिए
बदले में मिलेंगे
जीवन-पड़ाव का कल्पित जीवन-दान
जिसकी चकाचौंध में आदमी सब भूल जाता है।