बीती रात हुई सुबह की बेला,
जीने का फिर वही झमेला,
निकल पड़ा सिर बाँध अँगोछी,
कमाने घर-परिवार से दूर।
मैं मज़दूर, बेबस मजबूर!
हिम्मत के संग करके मेहनत,
ख़ुद लिखता हूँ अपनी क़िस्मत,
दीनता फिर भी साथ ना छोड़़े,
मिले मज़दूरी नहीं भरपूर।
मैं मज़दूर, बेबस मजबूर!
मेरे मन में भी रहती इच्छा,
पा जाते बच्चे अच्छी शिक्षा,
बहू सौभाग्यवती बन आए,
बेटी के माथ चमके सिंदूर।
मैं मज़दूर, बेबस मजबूर!
कड़ी धूप में ख़ून जलाता,
तब जाकर घर चल पाता,
मैं अभागा जनम-जनम का,
जीवन के मजे से रहता दूर।
मैं मज़दूर, बेबस मजबूर!
नसीब कहाँ बकरे की बोटी,
मेरे भाग्य तो साग औ' रोटी,
प्याज-सत्तू नित मेरे साथी,
मेरे भाग्य नहीं लिखा तंदूर।
मैं मज़दूर, बेबस मजबूर!
जो श्रमेव जयते कहते हैं,
कभी नहीं मुझको गहते हैं,
पास बैठूँ गर करके हिम्मत,
कहते मुझे ना तनिक शऊर।
मैं मज़दूर, बेबस मजबूर!
घूँट-घूँट कर आँसू पीता हूँ,
फिर भी कैसे जी लेता हूँ,
विधाता ने है खेल रचा या,
किया मज़ाक भाग्य ने क्रूर।
मैं मज़दूर, बेबस मजबूर!
प्रमोद कुमार - गढ़वा (झारखण्ड)