माँ का प्रेम - कविता - मनस्वी श्रीवास्तव

ना होकर भी जो संग मुझमे निहित साकार है,
मेरा रूप रंग मनोवृत्ति सब जो भी आकार है।
माँ ही तो अलंकार है मेरे चित्त की चित्रकार है।
मन की कथा हो या अंतरव्यथा हो,
सदा मन के कोने में देती सदा हो,
संघर्ष में अडिगता जिसके जीवन का आधार है।
माँ ही तो अलंकार है मेरे चित्त की चित्रकार है।
मंदिर की मूरत में अपनों की सूरत में,
दिखती वो दिव्य सी जैसे कोई चमत्कार है।
माँ ही तो अलंकार है मेरे चित्त की चित्रकार है।
जीवन की आशा जो कर्म की परिभाषा जो,
निश्छल सी मुस्कान जो प्रेमपूर्ण करताल है।
माँ ही तो अलंकार है मेरे चित्त की चित्रकार है।

मनस्वी श्रीवास्तव - प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश)

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