सुप्रसिद्ध कवियों की देशभक्ति कविताएँ | Deshbhakti Poems In Hindi
बुधवार, अगस्त 14, 2024
हमारे कवियों ने अपने शब्दों के माध्यम से देशभक्ति को जीवंत किया है, जिसे हम आज महसूस कर रहे हैं। उनकी कविताएँ हमें न केवल प्रेरित करती हैं, बल्कि हमें यह भी याद दिलाती हैं कि हमारी धरती ने कितने वीरों को जन्म दिया है। ये कविताएँ हमारे भीतर जोश भरती हैं, हमें हमारे देश के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का एहसास कराती हैं और हमें यह याद दिलाती हैं कि हमारे प्रयासों से ही देश प्रगति के पथ पर आगे बढ़ेगा।आइए, हम इन कविताओं के माध्यम से अपने दिलों में देशभक्ति की भावना को और भी मजबूत करें, और मिलकर अपने भारत को और भी महान बनाने का संकल्प लें।
प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध कवियों की 10 लोकप्रिय देशभक्ति कविताएँ
चाह नहीं, मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ।
चाह नहीं, प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ॥
चाह नहीं, सम्राटों के शव पर, हे हरि, डाला जाऊँ।
चाह नहीं, देवों के सिर पर चढूँ, भाग्य पर इठलाऊँ॥
मुझे तोड़ लेना वनमाली!
उस पथ में देना तुम फेंक॥
मातृ-भूमि पर शीश चढ़ाने।
जिस पथ जावें वीर अनेक॥
***
क़दम क़दम बढ़ाए जा
ख़ुशी के गीत गाए जा;
ये ज़िंदगी है क़ौम की,
तू क़ौम पे लुटाए जा।
उड़ी तमिस्र रात है, जगा नया प्रभात है,
चली नई जमात है, मानो कोई बरात है,
समय है, मुस्कुराए जा,
ख़ुशी के गीत गाए जा।
ये ज़िंदगी है क़ौम की
तू क़ौम पे लुटाए जा।
जो आ पड़े कोई विपत्ति मार के भगाएँगे,
जो आए मौत सामने तो दाँत तोड़ लाएँगे,
बहार की बहार में
बहार ही लुटाए जा।
क़दम क़दम बढ़ाए जा,
ख़ुशी के गीत गाए जा।
जहाँ तलक न लक्ष्य पूर्ण हो समर करेंगे हम,
खड़ा हो शत्रु सामने तो शीश पै चढ़ेंगे हम,
विजय हमारे हाथ है
विजय-ध्वजा उड़ाए जा।
क़दम क़दम बढ़ाए जा,
ख़ुशी के गीत गाए जा।
क़दम बढ़े तो बढ़ चले, आकाश तक चढ़ेंगे हम,
लड़े हैं, लड़ रहे हैं, तो जहान से लड़ेंगे हम;
बड़ी लड़ाइयाँ हैं तो
बड़ा क़दम बढ़ाए जा।
क़दम क़दम बढ़ाए जा
ख़ुशी के गीत गाए जा।
निगाह चौमुखी रहे, विचार लक्ष्य पर रहे,
जिधर से शत्रु आ रहा उसी तरफ़ नज़र रहे,
स्वतंत्रता का युद्ध है,
स्वतंत्र होके गाए जा।
क़दम क़दम बढ़ाए जा,
ख़ुशी के गीत गाए जा।
ये ज़िंदगी है क़ौम की
तू क़ौम पे लुटाए जा।
***
मस्तक ऊँचा हुआ मही का,
धन्य हिमालय का उत्कर्ष।
हरि का क्रीड़ा-क्षेत्र हमारा,
भूमि-भाग्य-सा भारतवर्ष॥
हरा-भरा यह देश बना कर
विधि ने रवि का मुकुट दिया,
पाकर प्रथम प्रकाश जगत ने
इसका ही अनुसरण किया।
प्रभु ने स्वयं ‘पुण्य-भू’ कह कर
यहाँ पूर्ण अवतार लिया,
देवों ने रजद सिर पर रक्खी,
दैत्यों का हिल गया हिया!
लेखा श्रेष्ठ इसे शिष्टों ने,
दुष्टों ने देखा दुर्द्धर्ष!
हरि का क्रीड़ा-क्षेत्र हमारा
भूमि-भाग्य-सा भारतवर्ष॥
अंकित-सी आदर्श मूर्ति है
सरयू के तट में अब भी,
गूँज रही है मोहनमुरली
ब्रज वंशीवट में अब भी।
लिखा बुद्ध-निर्वाण-मंत्र जय—
पाणि-केतुपट में अब भी,
महावीर की दया प्रकट है
माता के घट में अब भी।
मिली स्वर्ण-लंका मिट्टी में,
यदि हमको आ गया अमर्ष।
हरि का क्रीड़ा-क्षेत्र हमारा
भूमि-भाग्य-सा भारतवर्ष॥
आर्य, अमृत संतान, सत्य का
रखते हैं हम पक्ष यहाँ,
दोनों लोक बनाने वाले
कहलाते हैं दक्ष यहाँ।
शांतिपूर्ण शुचि तपोवनों में
हुए तत्व प्रत्यक्ष यहाँ,
लक्ष बंधनों में भी अपना
रहा मुक्ति ही लक्ष यहाँ।
जीवन और मरण का जग ने
देखा यहाँ सफल संघर्ष।
हरि का क्रीड़ा-क्षेत्र हमारा
भूमि-भाग्य-सा भारतवर्ष॥
मलय पवन सेवन करके हम
नंदनवन बिसराते हैं,
हव्य भोग के लिए यहाँ पर
अमर लोग भी आते हैं!
मरते समय हमें गंगाजल
देना, याद दिलाते हैं,
वहाँ मिले न मिले फिर ऐसा
अमृत, जहाँ हम जाते हैं!
कर्म हेतु इस धर्म भूमि पर
लें फिर-फिर हम जन्म सहर्ष।
हरि का क्रीड़ा-क्षेत्र हमारा
भूमि-भाग्य-सा भारतवर्ष॥
***
वह हृदय नहीं है पत्थर है,
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं॥
जो जीवित जोश जगा न सका,
उस जीवन में कुछ सार नहीं।
जो चल न सका संसार-संग,
उसका होता संसार नहीं॥
जिसने साहस को छोड़ दिया,
वह पहुँच सकेगा पार नहीं।
जिससे न जाति-उद्धार हुआ,
होगा उसका उद्धार नहीं॥
जो भरा नहीं है भावों से,
बहती जिसमें रस-धार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है,
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं॥
जिसकी मिट्टी में उगे बढ़े,
पाया जिसमें दाना-पानी।
है माता-पिता बंधु जिसमें,
हम हैं जिसके राजा-रानी॥
जिसने कि खजाने खोले हैं,
नवरत्न दिये हैं लासानी।
जिस पर ज्ञानी भी मरते हैं,
जिस पर है दुनिया दीवानी॥
उस पर है नहीं पसीजा जो,
क्या है वह भू का भार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है,
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं॥
निश्चित है निस्संशय निश्चित,
है जान एक दिन जाने को।
है काल-दीप जलता हरदम,
जल जाना है परवानों को॥
है लज्जा की यह बात शत्रु—
आये आँखें दिखलाने को।
धिक्कार मर्दुमी को ऐसी,
लानत मर्दाने बाने को॥
सब कुछ है अपने हाथों में,
क्या तोप नहीं तलवार नहीं।
वह हृदय नहीं है पत्थर है,
जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं॥
***
जग में अब भी गूँज रहे हैं गीत हमारे;
शौर्य, वीर्य्य, गुण हुए न अब भी हमसे न्यारे।
रोम, मिस्र, चीनादि काँपते रहते सारे,
यूनानी तो अभी अभी हमसे हैं हारे।
सब हमें जानते हैं सदा
भारतीय हम हैं अभय;
फिर एक बार हे विश्व! तुम
गाओ भारत की विजय॥
साक्षी है इतिहास, हमीं पहले जागे हैं,
जागृत सब हो रहे हमारे ही आगे हैं।
शत्रु हमारे कहाँ नहीं भय से भागे हैं,
कायरता से कहाँ प्राण हमने त्यागे हैं?
हैं हमीं प्रकंपित कर चुके
सुरपति तक का भी हृदय,
फिर एक बार हे विश्व! तुम
गाओ भारत की विजय॥
कहाँ प्रकाशित नहीं रहा है तेज़ हमारा?
दलित कर चुके सभी शत्रु हम पैरों द्वारा।
बतलाओ, वह कौन नहीं जो हमसे हारा,
पर शरणागत हुआ कहाँ, कब हमें न प्यारा?
बस, युद्ध मात्र को छोड़कर
कहाँ नहीं हैं हम सदय?
फिर एक बार हे विश्व! तुम
गाओ भारत की विजय॥
कारणवश जब हमें क्रोध कुछ हो आता है,
अवनि और आकाश प्रकंपित हो जाता है।
यही हाथ वह कठिन कार्य कर दिखलाता है—
स्वयं शौर्य भी जिसे देखकर सकुचाता है
हम धीर, वीर, गंभीर हैं;
है हमको कब कौन भय?
फिर एक बार हे विश्व! तुम
गाओ भारत की विजय॥
चंद्रगुप्त सम्राट हमारे हैं बलधारी,
सिल्यूकस की सर्व शक्ति है जिनसे हारी।
जिनका वीर्य्य विलोक मुग्ध मन में हो भारी,
पहनाई जयमाल जय-श्री ने सुखकारी।
हे हरि! गुंजित हो स्वर्ग तक
यह विजय-ध्वनि हर्षमय,
फिर एक बार हे विश्व! तुम
गाओ भारत की विजय॥
ताल दे उठी अहा! प्रतिध्वनि इस कीर्तन में,
हुई यही ध्वनि व्योम, शैल, नद, नगर, विजन में।
दो सहस्र से अधिक हो गये यद्यपि वत्सर,
पर विलीन हो सकी नहीं वह ध्वनि श्रुति-सुखकर।
गावेंगे ऐसे गीत हम
क्या फिर और किसी समय?
फिर एक बार हे विश्व! तुम
गाओ भारत की विजय॥
***
उरूजे कामयाबी पर कभी हिंदोस्ताँ होगा।
रिहा सैयाद के हाथों से अपना आशियाँ होगा॥
चखाएँगे मज़ा बर्बादी-ए-गुलशन का गुलचीं को।
बहार आ जाएगी उस दम जब अपना बाग़बाँ होगा।
ये आए दिन की छेड़ अच्छी नहीं ऐ ख़ंजर-ए-क़ातिल।
पता कब फ़ैसला उनके हमारे दरमियाँ होगा॥
जुदा मत हो मेरे पहलू से ऐ दर्दे वतन हरगिज़।
न जाने बाद मुर्दन मैं कहाँ औ तू कहाँ होगा॥
वतन के आबरू का पास देखें कौन करता है।
सुना है आज मक़तल में हमारा इम्तहाँ होगा॥
शहीदों की चिताओं पर जुड़ेंगे हर बरस मेले।
वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशाँ होगा॥
कभी वह दिन भी आएगा जब अपना राज देखेंगे।
जब अपनी ही ज़मीं होगी और अपना आसमाँ होगा॥
***
यह बहुमूल्य ध्वजा भारत माँ की है देखो आओ।
सब मिल करके श्रद्धा और विनय से शीश झुकाओ॥
कितना ऊँचा ध्वज-स्तंभ है
यह वंदे मातरम् लिखित है—
चमक रहा जो, फ़हर रही किस गति से दृष्टि टिकाओ।
सब मिल करके श्रद्धा और विनय से शीश झुकाओं॥1॥
यह न मात्र रेशमी वस्त्र है।
झंझावातों से न त्रस्त है—
तूफ़ानों से भी अविचल उड़ती है मोद मनाओ।
सब मिल करके श्रद्धा और विनय से शीश झुकाओ॥2॥
यहाँ इंद्र का वज्रायुध है।
यहाँ तुरक का अर्धचंद्र है—
वंदे माँ है मध्य, अमित गति का अनुमान लगाओ।
सब मिल करके श्रद्धा और विनय से शीश झुकाओ॥3॥
देखो ध्वजास्तंभ के नीचे
अद्भुत जन-समूह दृग मीचे
ये योद्धा कहते तन देकर ध्वज की आन बचाओ।
सब मिल करके श्रद्धा और विनय से शीश झुकाओ॥4॥
पंक्तिबद्ध यह दृश्य मनोहर,
युद्ध कवच शोभित छाती पर—
वीर शौर्यमय कितने चित्ताकर्षक हमें बताओ।
सब मिल करके श्रद्धा और विनय से शीश झुकाओ॥5॥
मधुर तमिलभाषी नर योद्धा,
रक्तिम आँखों वाले क्षत्रिय
केरल वीर, मातृपद सेवक
तुळुभाषी, तैलंग युद्धप्रिय॥6॥
यम को त्रास दिखाने वाले—
वीर मरहठे, रेड्डी-कन्नड़।
जिनकी देव प्रशंसा करते—
वे हिंदी-भाषी योद्धा गण॥7॥
जब तक धरती, धर्म-युद्ध है,
हिंदी नारियों में सतीत्व है।
वे राजपूत अटल जिनकी इस—
भू पर तब तक अमर कीर्ति है॥8॥
वीर सिंधुवासी जिनको—
अभिमान 'पार्थ की भू पर रहते'
बंगनिवासी जो न भूलते—
माँ की सेवा मरते-मरते॥9॥
ये सब देखो यहाँ खड़े हैं।
करके दृढ़ संकल्प अड़े हैं।
इनकी शक्ति और सबसे पूजित ध्वज की जय गाओ।
सब मिल करके श्रद्धा और विनय से शीश झुकाओ॥10॥
***
भारत ज़मीन का टुकड़ा नहीं,
जीता जागता राष्ट्रपुरुष है।
हिमालय मस्तक है, कश्मीर किरीट है,
पंजाब और बंगाल दो विशाल कंधे हैं।
पूर्वी और पश्चिमी घाट दो विशाल जंघाएँ हैं।
कन्याकुमारी इसके चरण हैं, सागर इसके पग पखारता है।
यह चन्दन की भूमि है, अभिनन्दन की भूमि है,
यह तर्पण की भूमि है, यह अर्पण की भूमि है।
इसका कंकर-कंकर शंकर है,
इसका बिन्दु-बिन्दु गंगाजल है।
हम जिएँगे तो इसके लिए
मरेंगे तो इसके लिए।
***
(1)
भारत हमारा कैसा सुंदर सुहा रहा है
शुचि भाल पै हिमाचल, चरणों पै सिंधु-अंचल
उर पर विशाल-सरिता-सित-हीर-हार-चंचल
मणि-बद्धनील-नभ का विस्तीर्ण-पट अचंचल
सारा सुदृश्य-वैभव मन को लुभा रहा है
भारत हमारा कैसा सुंदर सुहा रहा है
(2)
उपवन-सघन-वनाली, सुखमा-सदन, सुख़ाली
प्रावृट के सांद्र धन की शोभा निपट निराली
कमनीय-दर्शनीया कृषि-कर्म की प्रणाली
सुर-लोक की छटा को पृथिवी पे ला रहा है
भारत हमारा कैसा सुंदर सुहा रहा है
(3)
सुर-लोक है यहीं पर, सुख-ओक है यहीं पर
स्वाभाविकी सुजनता गत-शोक है यहीं पर
शुचिता, स्वधर्म-जीवन, बेरोक है यहीं पर
भव-मोक्ष का यहीं पर अनुभव भी आ रहा है
भारत हमारा कैसा सुंदर सुहा रहा है
(4)
हे वंदनीय भारत, अभिनंदनीय भारत
हे न्याय-बंधु, निर्भय, निबंधनीय भारत
मम प्रेम-पाणि-पल्लव-अवलंबनीय भारत
मेरा ममत्व सारा तुझमें समा रहा है
भारत हमारा कैसा सुंदर सुहा रहा है
***
धनी दे रहे सकल सर्वस्व,
तुम्हें इतिहास दे रहा मान;
सहस्रों बलशाली शार्दूल
चरण पर चढ़ा रहे हैं प्राण।
दौड़ती हुई तुम्हारी ओर
जा रहीं नदियाँ विकल, अधीर;
करोड़ों आँखें पगली हुईं,
ध्यान में झलक उठी तस्वीर।
पटल जैसे-जैसे उठ रहा,
फैलता जाता है भूडोल।
हिमालय रजत-कोष ले खड़ा,
हिंद-सागर ले खड़ा प्रवाल,
देश के दरवाज़े पर रोज़
खड़ी होती ऊषा ले माल।
कि जाने तुम आओ किस रोज़
बजाते नूतन रुद्र-विषाण,
किरण के रथ पर हो आसीन
लिए मुट्ठी में स्वर्ण-विहान।
स्वर्ग जो हाथों को है दूर,
खेलता उससे भी मन लुब्ध।
धनी देते जिसको सर्वस्व,
चढ़ाते बली जिसे निज प्राण,
उसी का लेकर पावन नाम
क़लम बोती है अपने गान।
गान, जिनके भीतर संतप्त
जाति का जलता है आकाश;
उबलते गरल, द्रोह, प्रतिशोध,
दर्प से बलता है विश्वास।
देश की मिट्टी का असि-वृक्ष,
गान-तरु होगा जब तैयार,
खिलेंगे अंगारों के फूल,
फलेगी डालों में तलवार।
चटकती चिनगारी के फूल,
सजीले वृंतों के शृंगार,
विवशता के विषजल में बुझी,
गीत की, आँसू की तलवार।
***
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