संदेश
कब तक सुधर पाओगे - कविता - डॉ. राजकुमारी
हे पुरुष, दंभ को कब तक रिश्तों के आड़े लाओगे ओह! यूं तो तुम एक दिन पत्थर दिल हो जाओगे पुरुष तुम सुधर पाओगे? हे पुरुष, स्त्री के वजूद क…
कर्मवीर मास्टर - नज़्म - कर्मवीर सिरोवा
मिरी मसर्रतों से गुफ्तगूं कर ज़ीस्त ने कुछ यूँ फ़रमाया हैं, ज्ञानमन्दिर में आकर हयात ने हयात को गले लगाया हैं। सोहबत में तेरी ए पाठशाला …
बचपन - कविता - प्रेम राम मेघवाल
लकड़ी से पत्थर को मारता हुआ बचपन पानी पर बुलबुलों सा तैरता हुआ बचपन ।। ठोकर खाकर गिरता जमीन पर और उठकर जमीन को मारता हुआ बचपन ।। जब आ…
मेरा दिल बहुत बेचैन है - कविता - कानाराम पारीक "कल्याण"
मेरा दिल बहुत बेचैन है, इसे पल-भर ना चैन है। जीवन के इस संघर्ष में, दिन सोया पर जागी रैन है। मेरा दिल...... नई सुबह की आश में, कुछ पान…
रक्तदान - कविता - सुधीर श्रीवास्तव
आपका किया रक्तदान तीन व्यक्तियों का जीवनदान। विचार कीजिये और लगे हाथ यह पुण्य काम कर डालिए। मन में संतोष होगा, आत्मसंतुष्टि मिलेगी, आप…
जय हो छठ मैया - कविता - अन्जनी अग्रवाल "ओजस्वी"
छठ पूजा व्रत और त्यौहार। सभी को मुबारक बारम्बार।। छठ पर करो सूर्य उपासना । जो करे दूर लोभ और वासना।। चतुरदिवसिय ये व्रत त्यौहार। लाए ज…
छठ व्रत - कविता - रवि शंकर साह
स्वच्छता व सादगी का एक त्योहार है। जिस पर हिंदुओं का आस्था अपार है। छठ व्रत की महिमा के क्या कहने है? करती इसको सभी माताएं-बहने है। का…
मुहब्बत सिखा गया - ग़ज़ल - ममता शर्मा "अंचल"
लो देखते ही देखते नशा -सा छा गया अनजान कोई आज मुहब्बत सिखा गया। मायूसियों ने होंठ न खुलने दिए कभी वो गीत बनके खुद को मगर गुनगुना गय…
राजनीतिक पेच - कविता - सन्तोष ताकर "खाखी"
मासूमों के खून से रंगे, बेनकाब चेहरे से दाग बड़े गहरे होते हैं। राजपुरूष चुनावो के बाद अक्सर बेईनामी की खुली किताब होते हैं। सता व कुर…
कितना और जगाएंगे? - लेख - सतीश श्रीवास्तव
कोरोना क्या आया सब-कुछ अस्त व्यस्त हो गया है। क्या पर्व क्या त्यौहार सबके मायने ही बदल गये। शादियों में आमंत्रित करने की भी सरकारी गाइ…
मग़रूर से रिश्ते बनाते नहीं - ग़ज़ल - मोहम्मद मुमताज़ हसन
मुंह मोड़कर हम जाते नहीं, इश्क गर तुम ठुकराते नहीं! यूं किसी से दिल लगाते नहीं, मग़रूर से रिश्ते बनाते नहीं! आंखों पे कब अख्तियार रहा, …
अरुणोदय - कविता - दिनेश कुमार मिश्र "विकल"
उषाकाल में- लालिमा से परिपूर्ण, प्रखर तेज, रक्त-वर्ण, अरुण! होते विकसित अरुणाचल में। हरे-भरे पर्वत-श्रंगों- के मध्य, लाल-बिंबफल सम, द…
निशान-ए-इश्क़ - कविता - कानाराम पारीक "कल्याण"
हँसते-हँसते ही जो मिट गये, सर चढ़ा अपनी माँ की कोख़ में, अलामत-ए-इश्क़ कुर्बान वतन पर, शहीदान-ए-वतन की ख़ाक पर। तेरी मिट्टी से इश्…
मैं जयपुर हूँ - कविता - गणपत लाल उदय
मैं हूँ स्मार्ट सीटी जयपुर राजस्थान की राजधानी जयपुर। सवाई जयसिहं मुझको बसाया गुलाबी नगरी में कहलाया।। सवाई प्रताप सिहं से लेकर …
अन्तर्द्वन्द - कविता - प्रवीन "पथिक"
कभी कभी, एक अजीब अन्तर्द्वंद! झकझोर देता मन औ मस्तिष्क को। घोर अवसाद मेघ बन, अच्छादित होता जीवन में, कर देता गतिहीन, प्रारब…
माँ का दुलार - कविता - रमाकांत सोनी
माँ के चरणों में स्वर्ग बसा, उस स्वर्ग का सुख तुम ले ना सके, जिस सुख की खातिर देव पूजे, वो सुख तुम माँ को दे न सके। बचपन से माँ की नज…
लोक आस्था का पर्व छठ - आलेख - डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी"
छठी मैया आइतन आज... छठ पर्व के आगमन होते ही यह गीत भारतवर्ष के कई राज्यों में विशेष रूप से बिहार, उत्तरप्रदेश और झारखण्ड के गली-मोहल्…
एक दफ़ा फिर से जी लेते है - कविता - अमित अग्रवाल
है स्याह अंधेरी रात और किसी मनचाहे भोर की तलाश, जज्बातो को रख सिरहाने ख्वाईशो की चादर ओढ़ लेते है चलो एक दफा फिर से जी लेते है। मिला जो…
कोरोना - कविता - प्रेम राम मेघवाल
मुँह पर मास्क रखेंगे हाथो को सेनीटाइज करेंगे।। कोरोना अभी हारा नहीं इससे हम और लड़ेंगे ।। ना आए भविष्य मै ऐसी आफत हम सोशल डिस्टेंस रखे…
मेरे दादा का कहना - कविता - रमेश चंद्र वाजपेयी
मेरे दादा कहते थे कि बेटा पहले का जमाना बडा सस्ता था। एक रुपये में पाँच किलो घी एक मन गेंहू और कुछ पैसों में ढ़ेर सारी जलेबी बर्फी आती …
माँ - कविता - गजेंद्र कुमावत "मारोठिया"
प्यारी सूरत है माँ त्याग, दया की मूरत है माँ चूल्हा-चौका महकार है माँ माँ है तो घर संसार है माँ के बारे में क्या न लिखूँ जो भी लि…
गाँव की गलियों में बसा मेरा मन - कविता - श्याम "राज"
गाँव की गलियों में आज भी घूमने का मन करता हैं बिता जो बचपन लोट आये आज भी मन करता हैं। माँ के हाथ की पापा के डंडे की मार खाने का आज भ…
तीन पात - कविता - डॉ. अवधेश कुमार अवध
सम्बंधों के शेयर बाजार में हर बार लगाता रहा अपनी सकल जमा पूँजी बिखरती हिम्मत को जुटाकर चकनाचूर हौसलों को जोड़कर उड़ते फाहों को धागे के …
मैं मजदूर हूँ - कविता - माहिरा गौहर
कभी निकले थे जो गाँव से शहर की ओर रोटी की तलाश में वो रोटी के टुकड़े पटरियों पर मिले राह तक ते उस खाने वाले की आस में क्या उन्हें कुचल…
मानवता - कविता - पुनेश समदर्शी
काश! ऐसा कोई जतन हो जाये, जाति-धर्म का पतन हो जाये। फिर ना रहे आपस में भेदभाव, सारे जहाँ का एक वतन हो जाये। सभी में हो अपनेपन का भाव, …
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