कब तक सुधर पाओगे - कविता - डॉ. राजकुमारी

हे पुरुष, दंभ को कब तक
रिश्तों के आड़े लाओगे
ओह! यूं तो तुम एक दिन
पत्थर दिल हो जाओगे
पुरुष तुम सुधर पाओगे?

हे पुरुष, स्त्री के वजूद को
कब समतुल्य समझ पाओगे
बुझे-बुझे से चेहरे रिश्तों के
क्या कभी खिला पाओगे?
पुरुषों तुम सुधर पाओगे?

स्त्रियों की स्वतंत्रताओं का
क्या इतिहास गवाह होगा?
या यूं ही भाग्यवाद हवाले से
पुरुष षड्यंत्र पक्ष लिखा होगा?
पुरुषों तुम सुधर पाओगे?

हे पुरुष, विश्वासघात, प्रवंचना
शंकालु प्रवृत्ति से बाज नहीं आते
नारी के प्रति कुत्सित मानसिकता
के, कब मन में बन्द करोगे खाते?
हे पुरुषों, तुम कब तक सुधर पाओगे?

डॉ. राजकुमारी - नई दिल्ली

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