है स्याह अंधेरी रात और
किसी मनचाहे भोर की तलाश,
जज्बातो को रख सिरहाने
ख्वाईशो की चादर ओढ़ लेते है
चलो एक दफा फिर से जी लेते है।
मिला जो कुछ अपना ही नसीब था,
जो दूर हुआ शख्श, न कभी करीब था।
हौले हौले ये रंज चुस्कियों में पी लेते है,
चलो एक दफा फिर से जी लेते है।
माँ बाऊजी सभी के हमसे कुछ सपने है,
परायों को खुश कर रहे और रूठ रहे सभी अपने है,
अपने परायो की पोशाक को,
इंसानियत की नाप से सी लेते है,
चलो एक दफा फिर से जी लेते है।
मन के सुकून की अभिलाषा में
खुद को ही खो दिया हमने,
खुद की तलाश कर,
खुद से खुद की पहचान को एक पूर्ण विराम देते है,
चलो एक दफा फिर से जिते है।
अमित अग्रवाल - जयपुर (राजस्थान)