निशान-ए-इश्क़ - कविता - कानाराम पारीक "कल्याण"

हँसते-हँसते  ही जो  मिट  गये,
सर चढ़ा अपनी माँ की कोख़ में,
अलामत-ए-इश्क़ कुर्बान वतन पर,
शहीदान-ए-वतन  की  ख़ाक पर।

तेरी  मिट्टी  से  इश्क़  था उसे,
किसी बेटी  से  इश्क़  था उसे,
निशान-ए-इश्क़  कुर्बान  कर गया,
वतन  पर  सब  फ़िदा  कर गया।

तेरी मुस्कान के सब इंतजार में,
कभी दीवारें साक्षी बनी प्यार में,
निशान-ए-इश्क़  कुर्बान वतन पर,
हँसते-हँसते रख खुद सर ज़मीं पर।

तूँ कर गया सब  कुछ न्योछावर,
फ़क्र  है  हमें  तेरी  शहादत पर,
तेरे निशान-ए-इश्क़ को ना लुटने देंगे,
हम वतन-परस्त कभी सर ना झुकने देंगे।

कानाराम पारीक "कल्याण" - साँचौर, जालोर (राजस्थान)

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