हँसते-हँसते ही जो मिट गये,
सर चढ़ा अपनी माँ की कोख़ में,
अलामत-ए-इश्क़ कुर्बान वतन पर,
शहीदान-ए-वतन की ख़ाक पर।
तेरी मिट्टी से इश्क़ था उसे,
किसी बेटी से इश्क़ था उसे,
निशान-ए-इश्क़ कुर्बान कर गया,
वतन पर सब फ़िदा कर गया।
तेरी मुस्कान के सब इंतजार में,
कभी दीवारें साक्षी बनी प्यार में,
निशान-ए-इश्क़ कुर्बान वतन पर,
हँसते-हँसते रख खुद सर ज़मीं पर।
तूँ कर गया सब कुछ न्योछावर,
फ़क्र है हमें तेरी शहादत पर,
तेरे निशान-ए-इश्क़ को ना लुटने देंगे,
हम वतन-परस्त कभी सर ना झुकने देंगे।
कानाराम पारीक "कल्याण" - साँचौर, जालोर (राजस्थान)