राजनीतिक पेच - कविता - सन्तोष ताकर "खाखी"

मासूमों के खून से रंगे,
बेनकाब चेहरे से दाग बड़े गहरे होते हैं।
राजपुरूष चुनावो के बाद अक्सर
बेईनामी की खुली किताब होते हैं।
सता व कुर्सी दिलों-दिमाग में होते हैं,
जब खुलेआम विकास के वादे होते हैं।
मोह तिलिस्म के हटते है नहीं कभी उनसे,
जो  प्रगति के गीत गाते हैं।
वादे सारे झूठे निकलते हैं जहां अक्सर
भूख से बिलखते नवजात होते हैं।
धर्म-अधर्म की बाते खूब है दिखती,
जब देश के नौजवान बेरोजगार होते हैं।
बिल्डर होते देखे खड़े जमीनों पर,
जब देश के किसान जिंदा जल रहे होते हैं।
बड़े खूनी दंगे होते देखे राजनीति में,
जब तिरंगे में लिपटे शहीद होते हैं।
इन चुपड़ी बातों से ही सिहांसन में
अयोग्य व्यक्ति शासन कर रहे होते हैं।
शराफत छुपाई जा नहीं सकती,
ये ही चापलूस खूब तरक्की कर रहे होते हैं।
हुकूमत की कुर्सी पर अनपढ़ रहे,
पढ़े-लिखें मजदूरी, खेतिहर, दिहाड़ी पर होते हैं।

सन्तोष ताकर "खाखी" - जयपुर (राजस्थान)

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