गाँव की गलियों में बसा मेरा मन - कविता - श्याम "राज"

गाँव की गलियों में आज भी घूमने का मन करता हैं 
बिता जो बचपन लोट आये आज भी मन करता हैं।

माँ के हाथ की पापा के डंडे की 
मार खाने का आज भी मन करता हैं।

शाम शाम को दादी संग पड़ोसियों के 
जाना का आज भी मन करता हैं।

दादा का इंतजार करने का आते ही पीट पर
बैठ घूमने का आज भी मन करता हैं।

भाई बहन को सताने का आज भी मन करता हैं। 
कहाँ आ गये अब कमाने के चक्कर में 
आज फिर से गाँव जाने का मन करता हैं।

याद हैं मुझे एक रुपये वाली सोलह गोली 
चवनि वाली वो प्रीती सुपारी
खाने का आज भी मन करता हैं।

पारले - जी का वो छोटा पैकेट 
छुपाने का आज भी मन करता हैं।

स्कूल जाने से पहले रोज रोज वाली
मार खाने का आज भी मन करता हैं।

आज के धुले कपडे आज ही 
गंदे करने का मन करता हैं।

जेबें भरी हैं नोटों से मगर आज भी
 सिक्के लेने का मन करता हैं।

कितनी-कितनी दूर आ गये घर छोड़ कर 
आज फिर से घर लौटने का मन करता हैं।

बचपन की यारी दोस्ती सब छुटी 
यारों संग आज फिर से खेलने का मन करता हैं।

गाँव की गलियों में बसा हैं मेरा मन,
क्यों बडा हो गया मैं
आज फिर से छोटा होने का मन करता हैं।

श्याम "राज" - जयपुर (राजस्थान)

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