मैं मजदूर हूँ - कविता - माहिरा गौहर

कभी निकले थे जो
गाँव से शहर की ओर
रोटी की तलाश में
वो रोटी के टुकड़े पटरियों पर मिले
राह तक ते उस खाने वाले की आस में
क्या उन्हें कुचल गई भूख
या घर लौटने के धुंधले सपने
छोड़ा था जो घर और परिवार
उनकी भूख मिटाने के लिए
वह इंसान ही मिट गया
दोबारा उनके पास जाने के लिए
कोई पूछे उनसे कि
बताओ किस का कुसूर है।
तो आँसुओं से भरी आँखें
और थरथराते लब कहते हैं।
मैं एक मजदूर हूँ साहिब
बस इतना मेरा कुसूर है।

माहिरा गौहर - नवादा (बिहार)

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