लो देखते ही देखते नशा -सा छा गया
अनजान कोई आज मुहब्बत सिखा गया।
मायूसियों ने होंठ न खुलने दिए कभी
वो गीत बनके खुद को मगर गुनगुना गया।
अहसास की तपन में जिसे ढूँढते थे हम
भूला हुआ -सा मीत हमें याद आ गया।
वो पंखुड़ी गुलाब की रह -रहके कह रही
गुलफ़ाम बन के मीत मुकद्दर सजा गया।
उसके करम की बारिशें कुछ इस तरह हुई
सपना थी जिंदगी, वो हक़ीक़त बना गया।।
ममता शर्मा "अंचल" - अलवर (राजस्थान)