सुष्मिता पॉल - दुर्गापुर (पश्चिम बंगाल)
मैं चला मैं ढूँढ़ने - कविता - सुष्मिता पॉल
गुरुवार, मई 22, 2025
मैं चला मैं ढूँढ़ने, कभी अपनों में,
कभी ग़ैरों में,
कभी मंदिर में, कभी पहाड़ों में,
असीम शांति की खोज में,
भटकता रहा राहगीर मैं,
दर-दर ठोकरें खा,
मैं चला मैं ढूँढ़ने।
कई ऋतुएँ आई गई,
कई शाम थमी,
मुझे सब कुछ मिला, बस मुझे मैं न मिला,
विहग मिले, कुछ मृग मिले,
तपस्या में तल्लीन कुछ संत मिले,
तपोवन में खोया-सा,
मैं चला मैं ढूँढ़ने।
मार्तंड की किरणें मिली,
सुधाकर से सुधा पान,
विचलित-सा मन, ना ज्ञान ना भान,
अंतरिक्ष का विस्तार देखा, अनगिनत प्रश्नों का समंदर देखा,
देखा नहीं तो बस अपने भीतर,
मैं चला मैं ढूँढ़ने।
कुछ सितारे दिखे, मंज़िल दूर हुई,
चाँदनी में सुकून तलाशा, वो भी धुँध में छिप गई,
संगीत की लहरियाँ मिली, सागर की गहराइयाँ मिली,
सब कुछ स्पष्ट था, फिर भी धुँधला था,
हवा में उड़ता मैं,
मैं चला मैं ढूँढ़ने।
आकस्मिक अनुभूति हुई जागृत,
यात्रा का समापन, पड़ाव था सामने,
अब कहीं दूर नहीं, अपने भीतर देखा,
भटकना नहीं है, थमना है,
यही ना जाना कभी ना समझा,
अंततः शांति मेरे भीतर थी,
अब और नहीं, थकान से हारा मैं, समझ गया कि,
मैं को मैं मिल गया।
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