संदेश
लगे हाथ पुण्य - लघुकथा - ईशांत त्रिपाठी
घर के चौखट पर दस्तक देने पर प्रतिदिन वाली कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। कार्यालय के चाकरी से थका साहिल स्वयं भीतर जाकर सबके मृत मन के हृद…
बाल हनुमान - कविता - आशीष कुमार
बहुरूपिये का रूप लिए, एक दिन देखा बाल हनुमान। जिह्वा उसकी रट लगाए, जय श्री राम जय श्री राम। मंत्रमुग्ध करे लघु रूप, लाल मुख बढ़ाए शान।…
नयनों के दीप जले हैं - कविता - राकेश कुशवाहा राही
नयनों के दीप जले हैं, काजल से सुन्दर सजे हैं। अंतस मे कुछ सपने हैं, जिसमें जीवन के रंग भरे हैं। नयनों के दीप जले हैं। पीली सरसों झूम र…
मैं जल हूँ - कविता - जितेन्द्र शर्मा
मैं जल हूँ! मैं श्वेत धवल हूँ शीतल हूँ। मैं जल हूँ! मैं जल हूँ। नभ से झर कर इस तप्त धरा पर, स्वयं को खोकर सुख पाता हूँ। मैं अजर अमर मै…
मैं शिक्षक हूँ - कविता - रामानंद पारीक
सवाल फिर वही था, पर मैं जवाब नया बताता हूँ l कौन हूँ, मैं क्या करता हूँ, कविता के ज़रिए सुनाता हूँ॥ सुन्दर सी इक बगिया है और मैं हूँ उस…
ऊर्जा - कविता - अजय गुप्ता 'अजेय'
जीवन में इच्छा-संकल्प, हैं सर्वोत्तम सह-प्रकल्प। स्वतंत्र विचार मानव के पास, किंतु वह अपने मन का दास। सही निर्णय नहीं ले पाता है, नहीं…
कुछ और नहीं बनना मुझको - कविता - देवेश द्विवेदी 'देवेश'
बेदर्दों का सिरमौर नहीं बनना मुझको, गुमनामी का दौर नहीं बनना मुझको। नेकदिली और नेकपरस्ती बनी रहे, इन्सान रहूँ कुछ और नहीं बनना मुझको। …
दर्पण - कविता - महेश कुमार हरियाणवी
देख ले जहान आज, कल कैसा होएगा। संचारित दुनिया में, अकेलापन रोएगा।। बच्चा कहीं और पले, माता कहीं और हो। कौन देगा ज्ञान ध्यान, पैसों की …
मैं नारी हूँ - कविता - गणेश भारद्वाज
दे दो सम अधिकार मुझे भी, पथ में आगे बढ़ने दो न। चढ़ जाऊँगी कठिन चढ़ाई, साथ मुझे भी चलने दो न। मैं नारी हूँ पूरक तेरी, समता को स्वीकार …
मिहनत की किलकारियाॅं - दोहा छंद - डॉ॰ राम कुमार झा 'निकुंज'
उषाकाल खिलती किरण, ख़ुशियाँ ले भू धाम। मिहनत की किलकारियाॅं, प्रकृति हॅंसी अभिराम॥ फैली चहुँ दिस लालिमा, नव प्रभात अरुणाभ। उद्योगी म…
पी गया वह पीर ताड़ी की तरह - ग़ज़ल - गिरेन्द्र सिंह भदौरिया 'प्राण'
अरकान : फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन तक़ती : 2122 2122 212 पी गया वह पीर ताड़ी की तरह, सकपकाया फिर अनाड़ी की तरह। लोग उसकी बात कैसे मान…
कृषक - कविता - अनूप अंबर
श्रम से अन्न उगाता कृषक है, विपदा से नहीं घबराता कृषक है। तन को तपा कर, बारिश सह कर, पर उन्नती न कर पाता कृषक है। अबकी बार फ़सल है अच्छ…
द्वारिका में बस जाओ - कविता - अंकुर सिंह
वृंदावन में मत भटको राधा, बंसी सुनने तुम आ जाओ। कान्हा पर ना इल्ज़ाम लगे, फिर तुम उसकी हो जाओ। रुक्मिणी, सत्या, जामवंती संग तुम द्वारिक…
वेदना के गीत - कविता - संजीव चंदेल
चलो वेदना के गीत गाते हैं, चलो विपदा को मीत बनाते हैं। दुख की सीमा तो घनीभूत है, फिर भी सबके मन में प्रीत जगाते हैं। गीत दर्द की रूबाई…
त्रिया - कविता - पायल मीना
क्यों मूक बन बैठी है क्यों सह रही है नृशंसता के धनी मानुषों का व्यभिचार क्यों सिला तुमने स्वयं के अधरों को क्यों पड़ी हो तुम क्लांत, …
वक़्त यूँ ज़ाया न कर - नज़्म - सुनील खेड़ीवाल
मसर्रतों की तलाश में अपनों से ख़ुद को यूँ पराया न कर, बेशक़ गर्दिश भरा है सफ़र, तू चल वक़्त यूँ ज़ाया न कर। हाँ, मिल ही जाएगी मंज़िल, ज़रा ख़ु…
बुरा वक़्त - कविता - श्याम नन्दन पाण्डेय
दुखों की थी जो काली रात, हँसी के जो सूखे थे हर इक पात, मुसीबत थे घने बादल, जो कोहरा ग़म का था छाया, फिर सुबह हुई सबकी उम्मीदें हुईं पैक…
आ भी जाओ - कविता - कमला वेदी
आ भी जाओ तुम लौटकर मैंने मन्दिर सा घर सजाया है। रंगीन पुष्पों और दिखावे से नहीं हृदय को पुष्प बन बिछाया है। पल-पल सींचा आँसुओं से प्रे…
जुगनू - कविता - सुनील कुमार महला
जुगनुओं सा होना चाहिए जीवन जग को प्रकाशमान करते मिटाते अँधियारा घोर अँधकार में जब टिमटिमाते हैं जुगनू आनंद से भर उठते हैं अनगिनत हृदय …
माँ - कविता - युगलकिशोर तिवारी
जब याद तेरी मुझे आती माँ नयनों से आँसू आते हैं बचपन में जब मैं रोता था आँचल से तेरे पोंछा था अब नीर नयन में आते हैं वो शीतल आँचल कहाँ …
जीत - ताटंक छंद - संजय राजभर 'समित'
जो है खड़ा निडर जन मन में, प्रीत उसी की होती है। गिरना, उठना, चलना जिसका, जीत उसी की होती है। धन बल, बाहुबल एक कलंक, अगर वह युद्ध थोप…
मुहब्बत एक-तरफ़ा थी - नज़्म - प्रशान्त 'अरहत'
बहुत बरसों बरस पहले मेरे कॉलेज कि इक लड़की हमारे पास आई थी मेरा बस नाम पूछा था। मैं ठहरा गाँव का लड़का उसे फिर आँख भर देखा बहुत नादान …
होली खेले कान्हा - गीत - प्रवल राणा 'प्रवल'
आज बिरज में होली खेले कान्हा। होली खेले कान्हा ठिठोली करें कान्हा॥ कौन के हाथ में देवे पिचकारी, कौन के हाथ गुलाल देवे कान्हा। कान्हा क…
होली आई रे - कविता - रविंद्र दुबे 'बाबु'
कली केशरिया बने रंग पिचकारी जात-पात भूल, सब गाए संगवारी रंग बिरंगी फूलों सा, ख़ुशहाली महके फागुनवा छाई झमाझमा, होली रे... होली आई रे..…
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