श्रम से अन्न उगाता कृषक है,
विपदा से नहीं घबराता कृषक है।
तन को तपा कर, बारिश सह कर,
पर उन्नती न कर पाता कृषक है।
अबकी बार फ़सल है अच्छी,
मन में मोद मनाता कृषक है।
स्वप्न कई आँखों में लेकर,
मंडी की सीध लगाता कृषक है।
न भाव मिला उचित फ़सल का,
दिन दहाड़े ही लूट जाता कृषक है।
कुछ बिचौलियों के चुंगल में,
हर बार ही फँस जाता कृषक है।
उसकी मजबूरी न देखी किसी ने,
ख़ून के आँसू पी जाता कृषक है।
कच्चा घर अगले साल बनेगा,
ये सोच फिर फ़सल उगाता कृषक है।
बेटी की शादी करनी है उसको,
फिर श्रम में लगन लगाता कृषक है।
कभी ओले, तो अभी आँधी तूफ़ाँ से,
अपनी क़िस्मत आज़माता कृषक है।
मन में आस लिए अपने,
सबकी क्षुधा मिटाता कृषक है।
जो सबकी क्षुधा मिटाता है,
कभी चैन से न सो पाता कृषक है।
ये जाने कब ये दिन बहुरेंगे,
ख़ुद को ही दोषी बताता कृषक है।
मिले फ़सल के उचित दाम बस,
इतनी सी गुहार लगाता कृषक है।
अनूप अंबर - फ़र्रूख़ाबाद (उत्तर प्रदेश)