होली आई रे - कविता - रविंद्र दुबे 'बाबु'

कली केशरिया बने रंग पिचकारी
जात-पात भूल, सब गाए संगवारी
रंग बिरंगी फूलों सा, ख़ुशहाली महके 
फागुनवा छाई झमाझमा, होली रे...
होली आई रे... होली आई रे।

साजन संग दिल झूम उठा है
सजनी बाँह पसारे ख़ुशी में
जी भर हँसना जी भर गाना 
मस्ती से मन बहलाई रे...
होली आई रे... होली आई रे।

बिखरे पलाश की रंग बिरंगी 
शोभा बसंत उन्मुक्त धरा गगन में
राधा कृष्ण का प्रेम मिला जब 
पुलकित सतरंगी मधुबन लाई रे...
होली आई रे... होली आई रे।

तन की भभूती आहुति देती
मिटे मनोरथ कपट हमारे
रंग बिरंगी सौहार्द का चोला
हुड़दंगी मस्ती, हँसी दिखाई रे...
होली आई रे... होली आई रे।

फागुन मास का संदेश सुहाना
गली में बजते ढोल मृदंग सुनाते
होलिका की जलती साँसे देखो 
नफ़रत में प्यारी, विजय दिलाई रे...
होली आई रे... होली आई रे।


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