मिहनत की किलकारियाॅं - दोहा छंद - डॉ॰ राम कुमार झा 'निकुंज'

उषाकाल खिलती किरण, ख़ुशियाँ ले भू धाम। 
मिहनत की किलकारियाॅं, प्रकृति हॅंसी अभिराम॥ 

फैली चहुँ दिस लालिमा, नव प्रभात अरुणाभ। 
उद्योगी मुख भंगिमा, अभिलाषी शुभ लाभ॥ 

उषाकाल पूजन भजन, निर्मल चित्त सुहास। 
कृपा सिन्धु हरि हर चरण, भर दे भक्ति मिठास॥ 

सजी धजी सुष्मित प्रकृति, धरा खिली मुस्कान। 
नई उमंगें प्रगति पथ, मिले विभव यश मान॥ 

कीर्ति पताका कर्म का, लहराए आकाश। 
महके ख़ुशबू चहुँ दिशा, परहित पौरुष आश॥ 

सोमाकर शुभ चंद्रिका, भरे मधुर मृदुभाष। 
कुसुमाकर कुसुमित कमल, प्रेरक नित सत्काम॥

कठिन परिश्रम सत्य पथ, अटल ध्येय विश्वास। 
विनय शील सच आचरण, पौरुष करे विलास॥ 

नया सबेरा मधुरिमा, शान्ति प्रेम दे लोक। 
खिले मदद की भावना, मिटे दीनता शोक॥ 

सुन्दरता हो आचरण, संस्कार हो शान। 
आयुध रण सत्कर्म हो, स्वाभिमान हो मान॥ 

सबको हो अरुणिम सुमति, चिन्तनशील विवेक। 
खिले कीर्ति की अरुणिमा, राष्ट्र धर्म हो एक॥ 

मानवता अनमोल जग, न्याय नीति हो राह। 
मानव सेवा हरि भजन, सुखमय सब हों चाह॥ 

सुखद सुफल रचना ललित, विलसित काव्य निकुंज। 
अरुणोदय कवि भाव रस, परहित नवरस पुंज॥ 


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