लगे हाथ पुण्य - लघुकथा - ईशांत त्रिपाठी

घर के चौखट पर दस्तक देने पर प्रतिदिन वाली कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली। कार्यालय के चाकरी से थका साहिल स्वयं भीतर जाकर सबके मृत मन के हृदय लिपि के अक्षर पहचान जाता है। यह मौन था घर के लाड़ली प्रिंसी के मृत्यु के उदासी का। यह प्रिंसी नाम उनके बिल्ली का है जो लम्बी बीमारी से पीड़ित थी पर फिर भी घर का रौनक बनी हुई थी। माँ-पिता के हाथ में चाय की प्याली थमाकर पत्नी के पास बैठ जाता है ताकि अपने हाथ से पत्नी उसको चाय दे और स्वयं भी पीए। चाय यज्ञ तो प्रारंभ हुआ पर पंचायत रूपी मंत्र आवाहन का अभाव लगा; जिसे फिर साहिल पूरा करने कि कोशिश करता है। साहिल कहता है कि क्यों न बनारस चला जाए? मन मनुहार करने के लिए हर जगह घूमना भी हो जाएगा और लगे हाथ पुण्य भी। माँ का मायका बनारस होने से उनके ओर से तो सहमति के कपाट पूर्व ही खुल गया और पिता जी उक्त बात से विज्ञ होने के नाते महान कुरूक्षेत्र को टालते हुए उदासीन-प्रधान हाँ! कहते हैं। पत्नी ने बनारसी साड़ी के लिए फॉल का रंग भी तत्क्षण सोच लिया। साहिल के घुमक्कड़ साले कुछ दूर में ही रहते थे जिनको मुख्य अतिथि के प्रारूप में रखकर बुलाया गया। सब बनारस पहुँच जाते हैं। इस बीच साहिल ख़ुश होता है कि घर वालों के दिमाग़ से बिल्ली निकल गई। सब हाहाहा करके ठहाके लगाते और बनारस के महकते धरोहरों का आनन्द गंध प्राप्त करते है। भगवान होते हैं या नहीं इस पर बहस छिड़ने ही वाली थी कि शिखा ने डाँटकर भाइयों को चुप करा दिया। गंगा स्नान के लिए जाते हैं। न जाने किस कारण से लोगों की संख्या कम थी पर इस बात पर साहिल सालों संग उत्साह से भर गया कि जोरदार आनन्द करेंगे। माँ-पिता थोड़ा सा डुबकी मारकर बाहर आ जाते हैं और जोड़ी में विश्वनाथ मंदिर के दर्शन को निकल जाते हैं। चूँकि बहुत ही फ़िल्मी तरीक़े से मजे किए जा रहे थे तीनों जन तो वहाँ से गुज़रती एक बुढ़िया मना करती है कि गंगा मैया रूष्ट नहीं होती है पर उनके गण यह बिल्कुल पसंद नहीं करेंगे, मत करो ऐसा‌ और ऐसा कहकर चली जाती है। कुछ क्षण में ही धारा तेज़ मालूम चलती है जिसमें तैरने का कोई भी तरीक़ा ठीक नहीं बैठ रहा था। पत्नी तेज़ आवाज़ दे रही थी कि दूर मत जाओं पर बेचारे बेबस थे धारा के आवेग से। घाट में बचे हुए लोग भी अदृश्य मानो कोई दिखलाई नहीं दे रहा था। तीन जन डूबने लगे और शिखा चिल्ला-चिल्ला कर मदद माँग रही है। कोई आस पास नहीं। बार बार तेज़ स्वर में चीख़ें दे रही पर कोई भी नहीं। पीछे थोड़ी दूर में ही अत्यंत काले रंग-कांति का नवयुवक अचानक खड़ा दीख पड़ा। शिखा हाथ जोड़कर मदद की गुज़ारिश करती है। वह पहले मना करता है फिर एकाएक विचित्र धैर्य से सबको बाहर निकाल देता है। सब एकदम मौन हो गए थे। वहीं वह बुढ़िया जैसे आँखों से ओझल होने पर दोबारा नहीं दीख पड़ी वैसे ही वह नवयुवक भी। पत्नी एक एक बात बताती है कि एक बूढ़ी औरत के द्वारा हँसी मज़ाक तीर्थ में करने को मना किया गया और त्यों ही यह सब हुआ। बचने के इस महाप्रसाद के परिणाम स्वरूप सब भगवान विश्वनाथ को अडिग विश्वास से प्रणाम कर जयकारे लगाते हैं “हर हर महादेव!”

ईशांत त्रिपाठी - मैदानी, रीवा (मध्यप्रदेश)

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