माँ - कविता - युगलकिशोर तिवारी

जब याद तेरी मुझे आती माँ
नयनों से आँसू आते हैं
बचपन में जब मैं रोता था
आँचल से तेरे पोंछा था
अब नीर नयन में आते हैं
वो शीतल आँचल कहाँ पाँऊ माँ?

तेरी उँगली पकड़ मैं चलता था
तब डर न था मुझे गिरने का
अब जब मैं लड़खड़ाता हूँ
तो किसका सहारा पाँऊ माँ?

रूठ जाता जब मैं सिसकियों में
उठा गोद सहलाती माँ
अब जब हिचकी आती है
वह प्यार सुधा कहाँ पाऊँ माँ?

अपने ख़ून से सींचा मुझको
तब मैं इठलाता चलता था
अब सूखा हूँ बिन वर्षा के
वह अमृत धार कहाँ पाँऊ माँ?

छोटी-छोटी बातों को
मैं तुझे बताने आता था
अब घिरा हुआँ हूँ उलझन में
वह प्यारा सुलझन कहाँ पाँऊ माँ?

छोटी-छोटी सी ख़ुशियों में
भाव विभोर हो जाता था
अब मैं जीतकर आता हूँ
तो किसे ख़ुशी बतलाऊँ माँ?

खेल-खेल में हारकर
जब मैं आता था
अंक तेरे छिप मीठे सपनों में खो जाता था
अब जब हार के आता हूँ
वह जीत ख़ुशी कहाँ पाऊँ माँ?

छोटी-छोटी ज़रूरतों को
त्याग स्वरूपा पूर्ण किया
जब आई मेरी बारी तो
मैं स्वारथ में डूब गया
जीवन की आपाधापी में
वह त्याग मूर्ति कहाँ पाऊँ माँ?

जब-जब टूट मैं जाता था
तो साहस मुझे बँधाती थी
अब मेरी हिम्मत टूट रही
वह महा शक्ति कहाँ पाऊँ माँ?

मेरे भावों को समझ-समझ
मुझे वाणी से सींचा है
मैंने तो तोतली वाणी भी
तुमसे ही सीखा है
अब पढ़कर गर्वांकूर में
वह सरस्वती कहाँ पाऊँ माँ?

तेरे आँचल के साए में
हर रोज़ दिवाली होती थी
अब घिरा हुआ हूँ अमावस में
वह दिव्य ज्योति कहाँ पाऊँ माँ?

युगलकिशोर तिवारी - कोरबा (छत्तीसगढ़)

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