जुगनू - कविता - सुनील कुमार महला

जुगनुओं सा होना चाहिए जीवन
जग को
प्रकाशमान करते
मिटाते अँधियारा
घोर अँधकार में
जब टिमटिमाते हैं जुगनू
आनंद से भर उठते हैं
अनगिनत हृदय
दौड़ जाती हैं मुस्कान
बच्चों के कपोलों पर
खिलखिला उठता है
बचपन
गुदगुदाते हैं जुगनू
पीला, हरा और लाल प्रकाश उत्पन्न करते
बरसात के मौसम में
मधुर संगीतमय आवाज़ निकालते
जुगनू
प्रकृति की क्या ख़ूबसूरत और अनमोल देन है।

दिखने में छोटी
लेकिन
पर्वतारोही दलों, राहगीरों को
रास्ता दिखाते
ये जुगनू
प्रकृति की अनोखी टॉर्च है
कौंधती हैं आँखों में जब ये टॉर्च
आँखों को जैसे चौड़ी करते
आँखों में घूमती है
चपल तेज़ रोशनी
जुगनुओं की चमक
लेकिन
आजकल निहारें कहाँ?
शहरों में जुगनुओं के दर्शन दुर्लभ हैं
कंक्रीट की दीवारों के बीच
किसानों का यह मित्र जीव
शनैः शनैः न जाने कहाँ चला गया है?
वनस्पतियों, पेड़-पौधों के अभावों के बीच
वायु प्रदूषण
खेती-किसानी में
अंधाधुंध कीटनाशकों के प्रयोग के बीच
प्राकृतिक रोशनी
झूलती नहीं दिखाई देती अब
खिड़कियों के बाहर
आँगन में
खेत की पगडंडियों पर
आजकल बच्चे नहीं पकड़ते जुगनू
बच्चे भूल गए हैं
कि जुगनू नाम की भी कोई चीज़ होती है
अस्तित्व
जुगनुओं का ख़तरे में आ गया है
यकायक
ऐ मानव!
तुम
बुला लो न इन जुगनुओं को
ग्रामीण, देहाती इलाकों में
आजकल बारिशें
सूनी हैं
सुना है 
मानव सभ्यता के अस्तित्व के लिए
जुगनुओं का
अस्तित्व बहुत ज़रूरी है।

सुनील कुमार महला - संगरिया, हनुमानगढ़ (राजस्थान)

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