त्रिया - कविता - पायल मीना

क्यों मूक बन बैठी है
क्यों सह रही है
नृशंसता के धनी मानुषों 
का व्यभिचार
क्यों सिला तुमने स्वयं 
के अधरों को
क्यों पड़ी हो तुम क्लांत,
निष्प्राण, अधमरी सी
क्या तुझमें वो सामर्थ्य नहीं
जो कर सके आक्षेप 
इन हिंसकों के कृत्यों का
क्या तुम भूल गई
है तुझमें विराजमान
वो दैवीय शक्ति साक्षात भवानी
जिसने पोषित किया है 
तुझे अपने दिव्य आशीष से
फिर क्यों तू पत्थर 
बन बैठी है
तुम उठो और सज्ज करो
अपने हथियारों को
और ले आओ क्रांति
अपने साहसी विचारों की
लाँघ जाओ उस दहलीज़ को
जिसने बनाया है तुम्हें बंधक
और छलनी किया है 
तुम्हारी स्वछंदता को
तुम बन जाओ दुर्गा
और अंत कर दो 
इस समाज से पुरुषत्व के
एकाधिकार को
और छीन लो अपने
समानांतरता के अधिकार को
और करो एक
नए युग का आग़ाज़
हे त्रिया! तुम उठो
और करलो प्राप्ति
अपने यथोचित स्थान की।

पायल मीना - बाराँ (राजस्थान)

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