संदेश
प्रवासी की वापसी - कविता - रुपेश कुमार
यह लॉक डाउन की है मार प्रवासी मजदूरों में मची है हाहाकार रोजी रोटी के छिन जाने से वह बन गए है बेबस और लाचार घर वापस आने को …
वृद्ध-जन-सेवा हो, जीवन अपना - कविता - दिनेश कुमार मिश्र "विकल"
वृद्ध -जन- सेवा हो, जीवन अपना। सम्मान सदा हो , हैं जिनकी रचना।। समर्पित सेवा में,प्राण निछावर हों, अब चाहे दर्द भले ही हो कितना ।…
मदिर मिलन - कविता - सुषमा दीक्षित शुक्ला
चन्दा और चकोर मिलेंगे आज सुहानी रात में । अपना भी तो मदिर मिलन है, फूलों की बरसात में । जग से छुपकर आयी प्रीतम, दिल ल…
गुलशन झा की शायरी
मेरे करीब आकर भी उसकी आंखो में जुस्तजू किसी और का था इधर मुन्तजिर मै था कि आंखो से मुझे नशा कराया जाएगा बेखबर था कि उसकी आंखो म…
छिद्रान्वेषी - कविता - दिनेश सूत्रधार
कविता में कवि में राजनीति में छवि में गली में कली में फली-फली में हर जगह भरे पड़े है रंध्र चाशनी- विहीन घेवर की …
मजदूर इन लॉकडाउन - कविता - हेमेंद्र वर्मा
हाँ मैं मजदूर हूँ, पर अभी मैं मजबूर हूँ निकल पड़ा हूँ सड़कों पर पत्नी, बच्चे और हाथों में कुछ सामान लिये पता है लॉकडाऊन है, पर क्या…
श्रृंगार - मुक्तक - रूपा सुब्बा
हाँ, मैं करती हूँ श्रृंगार, किसी के लिए नहीं बल्कि स्वयं के लिए श्रृंगार, क्या श्रृंगार के लिए ज़रूरी है किसी का साथ? क्या पू…
नया सबेरा जिंदगी - दोहा - डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
पुलकित है पा अरुणिमा ,निर्मल चित्त निकुंज। उठी कलम नवलेख को , देश प्रेम की गुंज।। देश बने जीवन कला , देश बने अरमान। …
लॉक डाउन की चुनौतियां ही भविष्य की उम्मीद हैं , इनसे बहुत कुछ सीखा है - लेख - सुषमा दीक्षित शुक्ला
जानलेवा वायरस से पूरी दुनिया ने काफी कुछ सीखा है ।इस वायरस ने दुनिया को भविष्य में आने वाले संकट से वर्तमान में ही तैयारी करने की ज…
व्यवहार परिवर्तन - लेख - रुपेश कुमार
आजकल अधिकतर बच्चों में यह समस्या देखने को मिल रही है कि वह अपने माता-पिता की बातों को बिल्कुल ही नहीं मानते है इससे माता-पिता का …
अंतरात्मा - कविता - शेखर कुमार रंजन
खुद को तू पहचान रे बंदे खुद में ही रम जाओ। खुद को खुद से मिलन कराकर खुद से ही बस जाओ। अपने अंदर की शक्ति को बाहर तुम ले आ…
चारो और खौफ़नाक मंज़र है - कविता - चीनू गिरि
चारो और खौफ़नाक मंज़र है , एक अदृश्य वायरस का डर है। सडकें सुनी, गलियां सुनी, बाजार सुने, मेले नही, ठेले नही, रेले नही, रिक्…
सेवा इंसान को बनाती महान - कविता - सुषमा दिक्षित शुक्ला
जग में सेवा करने वाले, ही महान बन पाए हैं । मानो सेवा की खातिर ही , वह धरती पर आये हैं । मानव सेवा से बढकर , तो कोई कर्म नही…
बेटी - कविता - गौतम कुमार
मत धकेलों दलदल में हमको , मेरी उम्र बहुत है छोटी। बेटों को मिलता मक्खन पुआ , बेटी को सुखी रोटी।। मत मारो …
शान्तिदूत कलम हूँ मैं - गीत - डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
अबाध अविरल संघर्षपथी, कलमकारों की कलम हूँ मैं। सिरफ़िरा तिरष्कृत अवसीदन, दर्पण सच पैरोकार हूँ मैं। अहंकार …
गांव की व्यथा (वेदना) - कविता - दिनेश कुमार मिश्र "विकल"
जिस मिट्टी में जन्मा, पला-बढ़ा,खेला- कूदा, पढा़, संस्कारित हुआ , रोजी के नाम पर पर शहर की ओर कूंच कर गया। कमानी थी उसे रोटी, …
बिंदिया - कविता - भरत कोराणा
शीर्ष पर प्रेम की मजबूती हृदय में अपनापन लिए महकती रही है बिंदिया। शिष्टा की क्यारी है वो मर्यादा का गीत है वो समर्पण …
रुबाई - सुषमा दीक्षित शुक्ला
हर पल हरदम यादों मे आते हो तुम। सारी बातें ख्वाबों मे बताते हो तुम। स्वप्न देश में बसेरा बना कर । कितना अब हमें रुलाते ह…
शिखर - कविता - गौतम कुमार
ठान लिया है शिखर पर , पहुँचने को हमने। ना पाँव देंगे कभी , दलदलों में जमने।। हौसलों को बुलंद करके, …
सजनी तेरा शृङ्गार करें - गीत - डॉ.राम कुमार झा "निकुंज"
मान सरोवर प्रेम युगल हम, आओ विमल जल विहार करें। हृदय कमल के पंखुरियों से, सजनी तेरा शृङ्गार करें। प्रीत मिलन सब …
आज पिंजरे में ही सुरक्षित है - कविता - दिनेश कुमार मिश्र "विकल"
आज पिंजरे में ही सुरक्षित है, संरक्षित है अब ये मानव। पंछी सक्षम हैं, प्रातःचार बजे से , पक्षियों का चहचहाना, पंख फड़-फड़ाकर जाग…
मजदूर की करुण व्यथा - गीत - ढलाराम गोयल "घड़ोई"
हम मजदूरों को गांव हमारे भेज दो सरकार ... सूना पड़ा घर द्वार। मजबूरी में हम सब मजदूरी करते हैं घर बार छोड़ करके शहरों में भटकते ह…
आयी भोर नयी आशा ले - गीत - डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
आयी भोर नयी आशा ले, सत्काम किरण के छत्र धरे। नयी प्रगति नवसोच साथ ले, अरुणिम अम्बर खग चहक रहे।। होश रहे…
कोरोना वायरस ने लॉक डाउन में लेखन को एक नया आयाम दिया है - लेख - सुषमा दीक्षित शुक्ला
कोविड-19 के चलते लोग घरों में रहकर पॉजिटिव बने रहने के लिए अपने स्तर से हरसंभव प्रयास कर रहे हैं ,ऐसे में वक्त की नजाकत को देखते ह…
इन पंजीकृत दलालों को रोक लो - ग़ज़ल - दिनेश कुमार मिश्र "विकल"
भरो न तस्वीरें रंग-ए-एक खून से, बेईमानी फिजाओं को रोक लो। बारूदी ढेर पर बैठी है ये दुनिया , सुलगती शिखाओं को रोक लो । वरगलाओ न …
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