अंतरात्मा - कविता - शेखर कुमार रंजन


खुद को तू पहचान रे बंदे खुद में ही रम जाओ।
खुद को खुद से मिलन कराकर खुद से ही बस जाओ।
अपने अंदर की शक्ति को बाहर तुम ले आओ।
बाहरी रंग दिखाता क्या है? अंदर का दिखलाओ।
खुद को तू पहचान रे बंदे खुद में ही रम जाओ।

मार्ग कलोहल का तुम छोड़ो, दामन थाम लो शांति का।
दुश्मन सारे अंदर ही है, वक़्त हुआ अब क्रांति का।
सबसे बड़ा है दुश्मन आलस इसको तुम हराओ।
क्रोध को तो प्रेम से मिला-मिलाकर खाओ।
खुद को तू पहचान रे बंदे खुद में ही रम जाओ।

युद्ध होगा विगल फूँक दो खुद से तेरा मुकाबला है।
सबसे बड़ा शस्त्र तुम्हारा, व्यायाम बड़ा ही बाबला है।
जीतोगे जब तुम्हारा आत्मविश्वास अडिग होगा।
क्या जिंदगी अपने शर्तों पे जीना ही जिद्द होगा?

शेखर कुमार रंजन
बेलसंड, सीतामढ़ी (बिहार)


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