निकल पड़ा हूँ सड़कों पर
पत्नी, बच्चे और हाथों में कुछ सामान लिये
पता है लॉकडाऊन है, पर क्या करता
खाने को पैसे नहीं, अपने भी नहीं साथ
दिहाड़ी मजदूरी मिलती थी उसी से गुज़ारा होता था
हाँ मैं मजदूर हूँ, पर अभी मैं मजबूर हूँ
काम के लिए आया था शहर
पर अब निकालना मुश्किल एक भी पहर
पुलिस भी नहीं रोकती लॉकडाऊन में
शायद समझती होगी मजबूरी मेरी
लेकिन पड़ जाती है सोच में, जब बताता हूँ
पैदल ही निकल पड़ा हूँ घर को
हाँ मैं मजदूर हूँ, पर अभी मैं मजबूर हूँ
बच्चे तो जैसे ज़िद का मतलब भी नहीं समझते मेरे
चल देते हैं साथ, चाहे सवेरे हो या अँधेरे
सोचता हूँ, फिर नहीं आऊँगा
गाँव में ही रहकर कुछ कमाऊँगा
पर वक़्त है, हमेशा बदलता रहता है
न जाने कब मुझे चार पैसे ज़्यादा की
या राष्ट्र को अपने निर्माण में,
मेरी ज़रूरत पड़ जाए..
हेमेंद्र वर्मा