श्रृंगार - मुक्तक - रूपा सुब्बा


हाँ, मैं करती हूँ श्रृंगार,
किसी के लिए नहीं बल्कि स्वयं के लिए श्रृंगार,
क्या श्रृंगार के लिए ज़रूरी है किसी का साथ?
क्या पूर्ण ना होता श्रृंगार बिना किसी के साथ?
रसराज ने भी माना है, संयोग के साथ वियोग श्रृंगार,
क्या बिना किसी के साथ अधूरा है स्त्री-श्रृंगार?

हाँ, मैं करती हूँ श्रृंगार,
जिसके करने से बढ़ता है मेरा आत्म-विश्वास,
फिर क्यों चाहिए मुझे किसी कारण की तलाश,
पूर्ण हूँ मैं बिन पाए किसी साथ,
श्रृंगार की ही भाँति स्त्री भी है स्वतंत्र,
रसों में है श्रृंगार सर्वोत्तम, तो स्त्री है सृजन में उत्तम।

रूपा सुब्बा
सिलीगुड़ी (पश्चिम बंगाल)

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