संदेश
ग्रीष्म ऋतु - कविता - अनिल कुमार
किसी अबला के कपोलों पर शुष्क आँसुओं की लकीरों जैसे नदियाँ शुष्क कुछ गीली पड़ी है अंखियों में आँसू रीत गए जैसे तड़ाग खाली, सूखे-नीरस पड…
बंद लिफ़ाफ़ों में - कविता - अमृत 'शिवोहम्'
मौत से पहले कोई ज़मीन ख़रीदेगा, आने वाली पीढ़ियों के लिए, दे जाएगा अपनी औलादों को, ख़ुद से महँगा सोना चाँदी, ज़मीन जायदाद और न जाने क्या-क…
माँ - कविता - अमरेश सिंह भदौरिया
ज़िंदगी के अहसास में वो हर वक्त रहती, कभी सीख बनकर कभी याद बनकर। दुनिया में नहीं दूसरी कोई समता, सन्तान से पहले जहाँ जन्म लेती ममता…
चलते जाओ मत ठहरो - लेख - प्रवेंद्र पण्डित
जीवन के पथ में भय वश यदि तन ठहर गया या मन ठहर गया तो, क्या हासिल होगा, गतिशीलता जीवन का मूल गुण है जिसके बिना जीवित मनुष्य निर्जीव देह…
हमने भर ली उड़ाने ख़ता हो गई - ग़ज़ल - नृपेंद्र शर्मा 'सागर'
हमने भर ली उड़ाने ख़ता हो गई, सारी दुनिया ही हमसे ख़फ़ा हो गई। आँधिया आ गई देख मेरी उड़ान, जलने वालों की ये इंतिहा हो गई। जिनको माना था ये …
अमर प्रेम की अमर कहानी - गीत - भगवती प्रसाद मिश्र 'बेधड़क'
1 अमर प्रेम की अमर कहानी। सुनों बेधड़क बंधु ज़ुबानी।। प्यार मुहब्बत के घर आँगन। फूल खिले हैं बागन बागन।। फागुन महिना सरसौ फूली। अमवा डा…
देह अगोचर - नवगीत - अविनाश ब्यौहार
हरियाली की देह अगोचर पात लगे झरने। पड़ता लू का पेड़, पत्ते, फूल पर साया। आग हुई सूर्य किरण बहुत क़हर बरपाया।। नदिया, झरने, ताल लगे हैं…
चिलचिलाती धूप - कविता - सुषमा दीक्षित शुक्ला
इस चिलचिलाती धूप ने जीना किया दुश्वार है। गर्म लू जलती फ़िज़ाएँ, हर तरफ़ अंगार है। आँधियाँ लू के थपेड़े, मन बदन बेज़ार है। पेट के ख़ातिर सभ…
दिशा दो नाथ - कुण्डलिया छंद - शिव शरण सिंह चौहान 'अंशुमाली'
जैसा कहते आप हैं, करन चहौं दिन-रात। बिन आज्ञा नहिं डोलत, थर-थर पीपर पात॥ थर-थर पीपर पात, धरा को पग में बांधे। सारा जग का बोझ, धरे हो अ…
नारी - कविता - रमेश चंद्र वाजपेयी
नारी है तो जग है, नारी है तो जीवन का सुंदरतम मग है। अबला नहीं हो तुम तुम तो हो सबला, बचपन में माँ-बाप का खिलौना और आँगन में जैसे तु…
सीता - कविता - सुधीर श्रीवास्तव
जनक सुता सुकुमारी राम की अर्धांगिनी, सुंदर, सुशीला सिद्धांतों की पुजारिन। बेटी धर्म निभाया पिता का मान बढ़ाया पत्नी धर्म निभाने की ख़ात…
करो आत्म तन का मंथन - कविता - राघवेंद्र सिंह
जीवन रूपी क्षीर सिन्धु में, करो आत्म तन का मंथन। रत्न चतुर्दश ही निकलेंगे, स्वयं करो इसका ग्रंथन। निज श्रम मंदराचल मथनी हो, वासुकी नाग…
भाग्य - कविता - महेन्द्र 'अटकलपच्चू'
आवश्यकता है कर्म की, साहस और परिश्रम की। भाग्य भरोसे मत रहना, चलो राह अब श्रम की। बढ़ना जो चाहे आगे, शुरुआत आज ही कर। जो पाना है लक्ष…
गिरा - कविता - अवनीत कौर 'दीपाली'
किसी की सोच किसी की सीरत किसी के लफ़्ज़ कड़वाहट से लिपटे है संभालने वालों ने गिरा दिया जो दिखावा पकड़ने का करते हैं। अहसासों में भीगे …
मन भाव विह्वल - कविता - सीमा वर्णिका
प्रस्तर हृदय में कैसी यह है हलचल, क्यों तुमसे मिल मन आज भाव विह्वल। बंजर ज़मीं सा उजड़ा हुआ मन का चमन, प्रिय विरह में सुलगती थी मन में …
उठो पार्थ - कविता - रमाकांत सोनी
उठो पार्थ प्रत्यंचा कसो महासमर में कूद पड़ो, सारथी केशव तुम्हारे तुम तो केवल युद्ध लड़ो। धर्म युद्ध है धर्मराज युधिष्ठिर से यहाँ महारथ…
सैरगाह - कविता - नागेन्द्र नाथ गुप्ता
कौन किसकी परवाह करता यहाँ, कौन गैरों की वाह वाह करता यहाँ। कहने को अपने कहलाते हैं लोग, कौन ख़ुद को गुमराह करता यहाँ। गिरता झरना झरझर क…
सत्य या भ्रमित? - कविता - अपराजितापरम
अपनी ही कुंठा में ग्रसित यह कैसा शोर-सा है? अज्ञानता के आवरण में इंसानियत को छलता सत्य होने का स्वांग रचाता अपनी ही कुंठा में ग्रसि…
धूल ग़ुबार - गीत - शुचि गुप्ता
बस रिक्त रहे मम हाथ सदा, बहु रत्न बने सब धूल ग़ुबार। जब भी परखा निज भाग मिले, मग में बस रेत मरुस्थल थार। कुछ ही दिखते सुख के क्ष…
नारी सशक्तिकरण - घनाक्षरी छंद - संगीता गौतम 'जयाश्री'
ममता की मूरत हो, भला सा एहसास हो। आँचल में नेह भरा, प्रेम का आवास हो।। सृष्टि का निर्माण किया, वंश बढा धरा बनी। जहाँ नहीं दुख दिखे, सु…
चिरैया - कविता - सिद्धार्थ गोरखपुरी
कोयल भी शहर की हो ली अब गाँव में बोले न बोली पर पेड़ नहीं शहरों में क्या ले ली है कोई खोली। अब गाँव में कम हैं गवैया आँगन में नहीं गौरै…
तो कितना अच्छा होता - कविता - प्रवीन 'पथिक'
चाय के साथ बिस्कुट बोरते हुए, सोचा कि; कोई एक दूसरे से लग इतना मुलायम हो जाता; और चू जाता चाय की प्याली में; खो कर अपना ग़ुरूर, तो कितन…
बढ़ते जाना - कविता - नंदनी खरे
अपना अगला क़दम बढ़ाना, हर दुर्गम पर्वत चढ़ जाना। कदम बढ़ाकर थम न जाना, तुम राहों से थक न जाना। कुछ तालियों की थपथपाहट सुनकर, मन हर्षित …
आख़िर क्या करता? - लघुकथा - प्रवेन्द्र पण्डित
पूरी ऊर्जा युवावस्था का अंतिम चरण काम और नाम की प्रबल चाह लिए साहित्यिक विचारों का सैलाब हृदय में हिलोरें मारता हुआ, वहीं युवा संतान ब…
कान्हा को उठाओं ना - कविता - अनिकेत सागर
नंदबाबा को अपने कान्हा की नटखट लीलाएँ देखें बिना रहा नहीं जाता इसलिए वो अपने कान्हा को यशोदा जी से कहकर उठाने को बोलते है। ओ री यशोदा…