सत्य या भ्रमित? - कविता - अपराजितापरम

अपनी ही कुंठा में ग्रसित 
यह कैसा शोर-सा है?
अज्ञानता के आवरण में इंसानियत को छलता 
सत्य होने का स्वांग रचाता 
अपनी ही कुंठा में ग्रसित 
यह कैसा शोर-सा है?

जो महसूस होता है, क्यूँ नज़र नहीं आता?
उलझा-सा ये द्वन्द्व या जिज्ञासा...
आडंबर और मूल्यों के मध्य 
क्यूँ समाधान नज़र नहीं आता?
भ्रमित हैं या लोभ से विवश...?
अपनी ही कुंठा में ग्रसित 
यह कैसा शोर-सा है?

सत्य तो सर्वत्र है 
कभी, भीड़ बन चीख़ता-चिल्लाता 
कहीं, बंद घरों की खिड़कियों के 
अधखुले कपाटों से झाँकता 
और कहीं, वक्त के हाथों कुचला जाता, 
अपनी ही कुंठा में ग्रसित 
यह कैसा शोर-सा है?

सत्य व्यथित है, मगर पराजित नहीं 
भ्रमित मानसिकता से गर, निकल पाते...
तो सत्य का मर्म समझ पाते,  
और, रोक सकते, बहस के इन मुद्दों में 
शिथिल होती मानवीय संवेदनाओं को...!

अपराजितापरम - हैदराबाद (तेलंगाना)

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