करो आत्म तन का मंथन - कविता - राघवेंद्र सिंह

जीवन रूपी क्षीर सिन्धु में,
करो आत्म तन का मंथन।
रत्न चतुर्दश ही निकलेंगे,
स्वयं करो इसका ग्रंथन।

निज श्रम मंदराचल मथनी हो,
वासुकी नाग नेती विश्वास।
स्वयं कर्म बन विष्णु कच्छप,
किया है धारण नव अभ्यास।

निज तन मंथन प्रारंभ करो,
खींचो विश्वास की तुम नेती।
सामर्थ्य लगा दो तुम अपना,
यह मथनी कुछ न कुछ देती।

दो छोर बने हैं नेती के,
क्रोध रूप राक्षस एक ओर।
शांति रूप में देव यहाँ सब,
खींच रहे नेती की डोर।

पहली मथनी मथी गई जब,
ज्वाल हलाहल तब निकला।
त्याग करो कटु विचार यहाँ,
जो जीवन विष जैसा निकला।

थोड़ा सा तुम और मथो,
रत्न वह निर्मल मन निकलेगा।
कामधेनु का है प्रतीक,
वह जीवन का धन निकलेगा।

तीजा रत्न अश्व सम होगा,
जिसपर करना गति विराम।
रत्न वह चौथा ऐरावत सा,
होगा रत्न बुद्धि वह नाम।

पंचम रत्न वह मणि कौस्तुभ,
जीवन में है भक्ति रत्न सम।
और है छठवाँ रत्न कल्पवृक्ष,
इच्छाओं का है प्रतीक सम।

रत्न सातवाँ निकले अप्सरा,
करना तुम नियंत्रण मन।
रत्न आठवाँ देवी लक्ष्मी,
वैभव, ऐश्वर्य और सम धन। 

रत्न नवाँ वह वरुणी देवी,
नशा नाश का वह कारण।
रत्न वह दसवाँ चंद्र है निकला,
जो जीवन शीतलता तारण।

ग्यारहवाँ रत्न पारिजात निकलेगा,
प्रतीक सफलता पूर्व शांति।
रत्न बारहवाँ निकले शंख,
जो ध्वनि देता विजय काँति।

होगा रत्न तेरहवाँ धन्वंतरी, 
औषधियों से हो निरोग।
रत्न चौदहवाँ निकलेगा तब,
अमृत का तुम करोगे भोग।

इस तरह यदि मंथन होगा,
तुम स्वयं प्रमाण ही बन जाना।
अपने जीवन को निज मंथन से,
अमर्त्य अमर तुम कर जाना।

राघवेन्द्र सिंह - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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