मेरे पिता - कविता - सुरेन्द्र प्रजापति
मंगलवार, मई 14, 2024
अपने पिता के बीते जीवन को जितना जानने की कोशिश करता हूँ
अक्सर हारा हुआ, और हटाश महसूस करता हूँ
जबकि दुःख से मुठभेड़ करते
कभी उदास नहीं दिखे पिता
वह इंसान परिवार के लिए था
सरल व्यापार के लिए था
गंभीर विचार के लिए था
परिवार के मुस्कुराहट के लिए
उसने चिलचिलाती धुप में तपकर लाल हुआ, पत्थरों पर गिर बेहाल हुआ
आज
अपनी कविताएँ लिखते हुए
मुझमें हिम्मत नहीं है
कि उनकी संघर्षों की दास्तान कहाँ से शुरु करूँ
पुरे घर से उनके लिए सारे शब्द विलुप्त हो गए हैं
जैसे उनकी खुरदूरी हथेलियाँ
थककर सो गई है।
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