ग्रीष्म ऋतु - कविता - अनिल कुमार

किसी अबला के कपोलों पर
शुष्क आँसुओं की लकीरों जैसे
नदियाँ शुष्क कुछ गीली पड़ी है
अंखियों में आँसू रीत गए जैसे
तड़ाग खाली, सूखे-नीरस पड़े है
मानो सारी रंग-बिरंगी चुड़ियाँ 
हाथों से छीनी या थोड़ी गई है
कुछ ऐसे प्रकृति बदरंग पड़ी है
फूलों-पत्तों-बेलों की सुन्दर साड़ी
उतारी गई हो तन से जैसे
श्वेत साड़ी में प्रकृति वैसे खड़ी है
न कोई उत्साह-उमंग धरा में
न किसी प्रिय से मिलन की तरंग
जीवन नीरस तपता वैविध्य में
प्रकृति मानो विधवा हो गई है।

अनिल कुमार - बून्दी (राजस्थान)

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