धूल ग़ुबार - गीत - शुचि गुप्ता

बस रिक्त रहे मम हाथ सदा, बहु रत्न बने सब धूल ग़ुबार।
जब भी परखा निज भाग मिले, मग में बस रेत मरुस्थल थार।
      
कुछ ही दिखते सुख के क्षण हैं,
इस  जीवन में दुख की भरमार।
मन भी तड़पे अरू घायल है,
सच में चुभते उनके व्यवहार।
गिरते पड़ते सब राह गई,
अब तो धर लूँ पग सोच विचार।
अवमुक्त करूँ उर की दुविधा,
बस अश्रु मिले मुझको उपहार।।

विधि लेख लिखा कब है मिटता, सब व्यर्थ हुए इसके उपचार।         
जब भी परखा निज भाग मिले, मग में बस रेत मरुस्थल थार।

मन व्याकुलता फिर है मिलती,
कर लो कुछ भी इस प्रेमिल राह।
निज नेहिल बंधन धूमिल हैं,
कर मीत स्वयं सपने सब दाह।                
कड़वे कुछ चिन्ह खिंचे कितने, 
उर अंतस को ठगती जब चाह। 
बहता नित सागर भाव छुपा,
उसके तल की मिलती कब थाह।

दिखता मुझको अब कूल नहीं, यह नाव फँसी जब है मझधार।
जब भी परखा निज भाग मिले, मग में बस रेत मरुस्थल थार।

कब आतुर कंठ पुकार सुनी,
तुम दूर हुए सब प्रीत बिसार।
मनके अब टूट गए मन के,
घुँघरू चुप हैं सब सुप्त सितार।
मम लेखन की गति बाधित है,
हिय आतप शुष्क हुई रस धार।
वह अंतिम गीत लिखूँ जब मैं,
शुचि प्राण मिटे उतरे सब भार।

ग्रह चाल सदा बस वक्र रही, बस ही न सका शुचि का घरद्वार।
जब भी परखा निज भाग मिले, मग में बस रेत मरुस्थल थार।

शुचि गुप्ता - कानपुर (उत्तरप्रदेश)

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