माँ - कविता - अमरेश सिंह भदौरिया

ज़िंदगी के अहसास में 
वो हर वक्त रहती,
कभी सीख बनकर  
कभी याद बनकर।

दुनिया में नहीं
दूसरी कोई समता,
सन्तान से पहले 
जहाँ जन्म लेती ममता।
औलाद में स्वयं
फ़ौलाद भरती,
टकराती तूफ़ानों से 
चट्टान बनकर।
ज़िंदगी के अहसास में 
वो हर वक्त रहती,
कभी सीख बनकर
कभी याद बनकर।

पन्नाधाय बनी कभी 
बनी जीजाबाई,
अंग्रेजों से लड़कर 
कहलाई लक्ष्मीबाई।
सामने पड़ा है कभी 
राष्ट्रहित जब,
उदर अंश को रख 
लिया है पीठ पर।
ज़िंदगी के अहसास में 
वो हर वक्त रहती,
कभी सीख बनकर 
कभी याद बनकर।

प्रगति को जहाँ 
रुकना पड़ा है,
देवत्त्व को स्वयं
झुकना पड़ा है।
सतीत्व को कसौटी पर 
सती ने रखा जब,
त्रिलोकी झूले हैं 
पालने में पड़कर।
ज़िंदगी के अहसास में 
वो हर वक्त रहती,
कभी सीख बनकर
कभी याद बनकर।

अमरेश सिंह भदौरिया - रायबरेली (उत्तर प्रदेश)

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