माँ नव दुर्गा पचासा - चौपाई छंद - सुशील कुमार

माँ नव दुर्गा पचासा - चौपाई छंद - सुशील कुमार | Chaupai Chhand - Maa Nav Durga Pachasa. माँ दुर्गा चौपाई छंद, नवदुर्गा पचासा
दोहा:-
मातु पिता गुरु नाय सिर, प्रथम मनाय गणेश।
कारज आय सॅंवारिए, बह्मा, विष्णु, महेश॥

जय जय माँ जगदम्बिका, करो कंठ में वास।
कीरति गाऊँ आपकी, कीजै पूर्ण प्रयास॥

चौपाई:-
सब भक्तों ने तुमहिं पुकारा। आवहु मातु सजा है द्वारा॥
शरण तुम्हारे मातु भवानी। कृपा करो आकर महरानी॥
कहं लगि कहौ मातु गुन करनी। मुख सहस्र जेहि जाइ न बरनी॥
रूप तेज गुन ललित विशाला। पावत दरश मिटहिं सब ब्याला॥

प्रथम दिवस माँ शैलापुत्री। सुयश कीर्ति बल ज्ञान धात्री॥
सिंह वाहिनी मातु भवानी। तव गुन गाथ न जाय बखानी॥
धूप देइ जो जपै हमेशा। ताके उर नहिं रहैं कलेशा॥
निर्मल मन जो ध्यान लगावै। ताहि दरिद्र निकट नहिं आवै॥

सरल शांति और सौम्य धारणी। रूप दूसरा ब्रह्मचारिणी॥
सहस पाँच बरसन्ह तप कीन्हा। तव दर्शन त्रिपुरारी दीन्हा॥
श्वेत-पीत पट मातु सुहावे। व्यंजन क्षीर मनहि अति भावे॥
ज्ञान, प्रेम अरु बुद्धि विवेका। नाम जपत पावै हर एका॥

नाम तृतीय विदित संसारा। मातु चंद्रघण्टा अति प्यारा॥
अर्ध चन्द्रमा भाल सुहावे। मातु चंद्रघण्टा अति भावे॥
महिषासुर जब भयो कराला। दस भुज मातु हते तेहि काला॥
मातु तुमहि जो ध्यान लगावे। साहस शांति परम पद पावे॥

मंद हास्य प्रगटेव ब्रह्मांडा। नाम पड़ा तव माँ कुष्मांडा॥
शंख, गदा, धनु-बाण, कमण्डल। चक्र, जलज कर में गंगाजल॥
अष्टभुजा माँ शेर सवारी। हरे भक्त की विपदा सारी॥
जो काशीफल, लौंग चढ़ावै। स्वस्थ्य लाभ धन संपति पावै॥

दैत्य तारकासुर अति भारी। जासे सकल देव गए हारी॥
तबहि अंब कार्तिकेय जायो। तेहि बहु बिधि रण ज्ञान सिखायो॥
पुत्र लालसा जेहि मन होई। ध्यान धरे मन में नर सोई॥
जो कदलीफल भोग लगावै। माँ स्कंद तेहि गृह आवै॥

ऋषि कत्यायन सुता सयानी। नाम पड़ा तेहि माँ कत्यायनी॥
अस्त्र-शस्त्र कर पंकज सोहे। वाहन सिंह सकल जग मोहे॥
यादव कुल की आदि भवानी। शक्तिपीठ वृंदावन माही॥
कुमकुम, रोली आन चढावै। सो उत्तम सहचर जग पावै॥

बाढ्यो रक्त-बीज आचारा। कालरात्रि तव रूप संवारा॥
रूप कराल धर्यो तब माता। रक्त-बीज मारयो निज हाथा॥
होय अति क्रुद्ध लड्यो समरांगण। रूंड-मुण्ड पाट्यो पूरा रण॥
लाल फूल, फल, वस्त्र चढावै। सो नर मातु मनहि अति भावै॥

रजत समान रूप महमाई। मातु महागौरी कहलाई॥
वाहन सोहे शेर सवारी। सदा होय भक्तन हितकारी॥
धूप, दीप, नैवेद्य चढावै। हलवा पूरी भोग लगावै॥
ध्यान सदा जो नर मन लावै। जनम-मरण से मुक्ति पावै॥

नवम स्वरूप माँ सिद्ध दात्री। विद्या, बुद्धि, ज्ञान अधिष्ठात्री॥
कमलासन, भुज चारि सोहाहीं। होहि सिद्धि सुमिरत मन माहीं॥
जप, तप करहिं होम बिधि नाना। कीरति बहु बिधि वेद बखाना॥
पुआ, नारियल, खीर चढावै। तेहि ढिग मातु तुरत चलि आवै॥

होहु प्रसन्न आदि जगदम्बा। केहि कारण माँ कींह बिलम्बा॥
रूप सरस्वती जगत पियारा। जनमानस दे ज्ञान संवारा॥
ज्ञान ज्योति हे मातु जलाओ। मोह मदादिक दूर भगाओ॥
तुम ग़रीब दुख दोष निवारी। रूप लक्ष्मी जगत दुलारी॥

सुमिरहुं तोहि बली अति जानी। रक्षा करहुँ मातु मम आनी॥
करहु शत्रु कर नाश भवानी। बार बार विनवऊँ कल्याणी॥
आशा तृष्णा निपट सताए। कामरूप निशदिन भरमाए॥
ध्यान धरे जो तुमको मन से। दोष मुक्त हो जाए तन से॥

जो छल छाडि जपै नित तोही। काल रूप नहीं व्यापे सोई॥
जोरि पानि करि विनय बढाई। करहु कृपा सुशील पर माई॥ 

दोहा:-
तन बंजर धरती हुई, मानस रूप करील।
अमिय ज्ञान बरसाय माँ, कीजै मोहि सुशील॥


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