संदेश
नयन-नयन में हो रही - कुण्डलिया छंद - भगवती प्रसाद मिश्र 'बेधड़क'
नयन-नयन में हो रही, नयन-नयन की बात। प्रेम प्यार का अंतरा, गीत-ग़ज़ल शुरुआत॥ गीत ग़ज़ल शुरुआत, शब्द रचना है सुरीली। ऐसे समझो यार, जैस है…
राम-रहीम के झगड़े - कविता - अनिल कुमार
कभी ईद कभी हनुमान-महावीर जयंती पावन अवसर धर्म की रेलियाँ कहीं पत्थर-चाकूबाजी कहीं उल्लड़बाजी-गोलियाँ अख़बारों के पन्ने रोज़ ही लाल कभी य…
सुलझता मन - कविता - मेहा अनमोल दुबे
सुलझता मन मेरा– उलझनो में, उलझते-उलझते बहुत उलझ गई ज़िंदगी। ज़िंदगी "ज़िंदगी" नहीं उलझा माँझा लगती है कभी-कभी। न ख़्वाहिश न उम…
ख़ुशी का राज़ - लघुकथा - प्रवेंद्र पण्डित
रमन मायूस मन लिए पैदल ही कारखाने से घर की तरफ़ निकल पड़ा। मन में विचारों का मंथन चल रहा था। आख़िर पाँच हज़ार तनख़्वाह में कैसे घर चलेगा,…
दो जहाँ की हसीं जज़ालत है - ग़ज़ल - नवीन नाथ
अरकान : फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ेलुन तक़ती : 2122 1212 22 दो जहाँ की हसीं जज़ालत है, ख़ुल्द से बड़के ख़ूबसूरत है। मुल्क रब की निगाहों सा दि…
बंधन - कविता - डॉ॰ सरला सिंह 'स्निग्धा'
अपनों को ही मार रहा यह लिए डोलता आयुध साज। मिलता जो कमज़ोर उसे ही हासिल करने की चाहत है। कहाँ दया ही उसके दिल में देता कब किसी को राहत …
आस का पंछी - कविता - राजीव कुमार
आस का पंछी उड़ान भरे, आस को मिलता रहे जीवन, संघर्ष समर्पण, संघर्ष समर्पण। आस का पंछी जिस डाल बैठे, न आए उसमे पतलापन, संघर्ष समर्पण, संघ…
संयुक्त परिवार हमारा - कविता - गणपत लाल उदय
बच्चों-जवानों बुज़ुर्गों से भरा है आँगन सारा, संस्कारो से जुड़ी हमारी जिसमें विचारधारा। तुलसी पूजन की हमारी यह पुरानी परम्परा, ऐसा है ख़…
प्रकृति का सुकुमार कवि : सुमित्रानंदन पंत - कविता - राघवेंद्र सिंह
जयति जय हे! हिमालय पुत्र, बन मकरंद तुम निकले। हरित आँचल हिमानी से, बनकर छंद तुम निकले। प्रकृति के अंक तुम खेले, नदी झरनों ने की कल-कल।…
तपिश - कविता - सुषमा दीक्षित शुक्ला
भयंकर तपिश के दरमियाँ, ये जो शीतल जल है। यही तो बस आजकल, जीने का सम्बल है। उफ़ ये जलती फ़िज़ाएँ, अंधड़ की डरावनी सदाएँ। ये आँधियाँ ये गर्म…
मज़दूर - कविता - महेन्द्र 'अटकलपच्चू'
रात दिन मेहनत करता जी भर पीता पानी, तंगी में भी ख़ुश रहता मज़दूर तेरी यही कहानी। औरों की सेवा करता सर्दी गर्मी या बरसे पानी, तन पे कपड़ा…
तुमने मुझसे मेरा कमरा ही छीन लिया - कविता - नौशीन परवीन
तुमने मुझे दिया तो एक कमरा जिसमें फूलदान हवादान, दीवारों पर लगी सीनरी जो हमारी गुमसुम सी मुस्कान को बरक़रार रखती थी वह कमरा जो हमारी …
सरहदें - कविता - कुमुद शर्मा 'काशवी'
सरहदों पर थामे कफ़न हो मौत जिनकी...! इमान-ए-वतन हो, सरहदों से टकरा कर बाग़ी हवा भी लौट जाए लहू में बहती जिनके अग्न हो। जात न पूछो... पात…
बच्चों को ख़ूब लुभाते आम - कविता - आशीष कुमार
खट्टे मीठे पीले आम, कितने हैं रसीले आम। सभी फलों के राजा हैं, सबसे ऊँची इनकी शान। आई गर्मी लेकर आम, सूझा ना कोई और काम। आम तोड़ने की ह…
संग हमें रहना है - गीत - रमाकांत सोनी
हर मुश्किल संघर्षों को मिलकर हमें सहना है, कुछ भी हो जाए जीवन में संग हमें रहना है। संग हमें रहना है। प्रीत की धारा बह जाए प्रेम सुधार…
हस्ताक्षर - संस्मरण - संगीता राजपूत 'श्यामा'
कानपुर के जुहारी देवी गर्ल्स इंटर कॉलेज में वार्षिक समारोह था। बात तब की है जब हम कक्षा दस में पढ़ते थे। हमने मंच पर सितार वादन की प्रस…
अजायबघर - कविता - रवि तिवारी
पृथ्वी कितनी छोटी थी जब हमारे पास मिलने की आकांक्षा थी। आकांक्षाएँ सिमटती रही और एक दिन बहुत दूर हो गए हमसे हमारे ही शहर। एक तरह का अज…
कहाँ है जीवन - कविता - मेहा अनमोल दुबे
क्षण भर जीवन, मनभर जीवन, ना मन जीवन, ना तन जीवन, विचारो में तन्मय, "जीवन" अक्सर मन कि जलन-कूड़न में खोजते जीवन, पर, इसमें…
समाज स्वर्ग परिवार बने - कविता - डॉ॰ राम कुमार झा 'निकुंज'
हम जन्मजात नित पले बढ़े, समाज स्वर्ग परिवार मिले। हम क़र्ज़दार सामाजिक जन, व्यक्तित्व सुयश पहचान मिले। अरुणिम प्रभात नव जीवन के, बन गुरु …
वो दिन जाने कब आएगा - ग़ज़ल - ममता शर्मा 'अंचल'
अरकान : फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन तक़ती : 22 22 22 22 वो दिन जाने कब आएगा, दुख में आकर समझाएगा। सुख का यकीं न कर पगले मन, सुख चंचल है …
गँवईयत अच्छी लगी - कविता - सिद्धार्थ गोरखपुरी
माँ को न शहर अच्छा लगा न न शहर की शहरियत अच्छी लगी, वो लौट आई गाँव वाले बेटे के पास के उसे गाँव की गँवईयत अच्छी लगी। ममता भी माँ से थो…
काव्य में ढलती गई - गीत - शुचि गुप्ता
नव रूप लेकर मौन अंतस भावना छलती गई, निर्झर द्रवित उर वेदना शुचि काव्य में ढलती गई। सब बंद होते ही गए जो द्वार स्वप्निल थे सुखद, सम रेण…
अब आया समझ में - कविता - रमेश चंद्र वाजपेयी
अब आया समझ में कि कवि कैसे बन जाते हैं, मन की पीड़ा हृदय तक जब हिलोर लेती है तब कवि बन जाते है। तुम ही तो हो समाज के असल पथ प्रदर्श…
दर्द-ए-नौकरी - कविता - ऋचा तिवारी
हर रोज़ की मुश्किल ये भी है, ये दर्द किसे बतलाए हम। एक मासूम से दिल को कैसे, रोज़ भला बहलाए हम। घर से निकले जब, जानें को, वो हाथ पकड़, य…
निराला जी की मज़दूरिन - कविता - रमाकान्त चौधरी
कितनी ही सड़कों पर बिछा उसका पसीना है, मगर क़िस्मत में उसकी आँसुओं के संग जीना है। किन-किन पथों पर उसने कितना पत्थर तोड़ा है, मेहनत से…