सरहदें - कविता - कुमुद शर्मा 'काशवी'

सरहदों पर थामे कफ़न हो
मौत जिनकी...!
इमान-ए-वतन हो,
सरहदों से टकरा कर
बाग़ी हवा भी लौट जाए
लहू में बहती जिनके अग्न हो।

जात न पूछो... पात न पूछो
सरहदों पर खड़े नौनिहालों से,
धर्म मज़हब की दीवार न पूछो,
धरा न जिनको थाम लिया
ऐसे शौर्य वीरों की...!
तुम औक़ात न पूछो।
 
मिट्टी में लिपटा तन हो
शौर्य केसरिया गगन हो,
सौंधी ख़ुशबू से महके
हर घर का आँगन...!
ऐसा सुनहरा मेरा वतन हो।

हवा का रूख कोई भी हो
सरहदों पर सीना तान चलते है वो,
सर्द हवाएँ हो या तपती लू
देश की सेवा में तत्पर रहते है वो।

सरहदों पर सपने सँजोते
इन हक़ीक़त के सिपाहियों को
मेरा कोटि कोटि नमन हो,
निशाँ ख़ुद का मिटाकर भी
जो चमन में फूल खिलाते हो,
चिराग़ घर का बुझने पर भी
जो देश की आन में मुस्कुराते हो,
ऐसे वीर बहादुर सेनानियों को
मेरा ह्रदय से नमन हो।

कुमुद शर्मा 'काशवी' - गुवाहाटी (असम)

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