प्रकृति का सुकुमार कवि : सुमित्रानंदन पंत - कविता - राघवेंद्र सिंह

जयति जय हे! हिमालय पुत्र,
बन मकरंद तुम निकले।
हरित आँचल हिमानी से,
बनकर छंद तुम निकले।

प्रकृति के अंक तुम खेले,
नदी झरनों ने की कल-कल।
चीड़ और देवदारू ने,
झुलाए झूले नित पल-पल।

तुम्हारा गौर वर्ण मुखरित,
लिए तुम केश लहराते।
तुम्हारे हाथ थे कोमल,
लिए अधरों को मुस्काते।

भ्रमर, गुंजन, लताएँ, पुष्प
सारे काव्य के गहने।
कलम प्रकृति को ही लिखने,
लगी है वह सदा बहने।

भूल जीवन परिस्थिति को,
किया है नित सृजन नव ही।
धैर्य को रख पराभव दूर,
किया स्थिर है निज रव ही।

किया प्रकृति का ही वर्णन,
प्रकृति संगीत ही गाया।
काव्य के इस जगत में नाम,
प्रकृति सुकुमार कवि पाया।

धरा पर जब विचरने को,
कला और बूढ़ा चाँद आएगा।
प्रकृति कण-कण सदा ही वह
कवि शिरोमणि पंत पाएगा।

राघवेन्द्र सिंह - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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