निराला जी की मज़दूरिन - कविता - रमाकान्त चौधरी

कितनी ही सड़कों पर बिछा उसका पसीना है,
मगर क़िस्मत में उसकी आँसुओं के संग जीना है। 

किन-किन पथों पर उसने कितना पत्थर तोड़ा है,
मेहनत से अपनी कितनी सड़कों को जोड़ा है। 
थक हार कर थी बैठती जिस पेड़ के नीचे,
वह पेड़ ख़ुद ही सोचता जान अब कैसे बचे। 
है बहुत कमज़ोर उसका तन हुआ जर्जर।
मगर वह तोड़ती पत्थर
इलाहाबाद के पथ पर
वह अब भी तोड़ती पत्थर। 

मंत्री बन गया है अब जो ठेकेदार था उसका,
है पत्थर तोड़ता बेटा जो होनहार था उसका।
तरक़्क़ी इस तरह उसकी दिखने लगी है अब,
फ़ोटो पोस्टरों पर उसकी छपने लगी है अब।
इलेक्शन के समय वो सबकी ख़ास हो जाती,
काग़ज़ों पर कालोनी उसकी पास हो जाती। 
राशनकार्ड की ख़ातिर भटकती रहती वह दर-दर।
वह तोड़ती पत्थर
इलाहाबाद के पथ पर
वह अब भी तोड़ती पत्थर।

अब तलक उसका कहीं भी बन न पाया घर,
वो आज भी रहती है सड़कों के किनारों पर। 
बड़ी बेबस है अब भी वो निराला जी की मज़दूरिन, 
फटे चिथड़ों से अब भी झाँकता उसका है बूढ़ा तन। 
सिर पर कड़कती धूप, हथौड़ा हाथ में अब भी,
गरम लू अब भी लगती है गला है सूखता अब भी। 
मिलेगी आज भी तुमको वह तोड़ती पत्थर।
वह तोड़ती पत्थर
इलाहाबाद के पथ पर
वह अब भी तोड़ती पत्थर। 

रमाकांत चौधरी - लखीमपुर खीरी (उत्तर प्रदेश)

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