सुलझता मन - कविता - मेहा अनमोल दुबे

सुलझता मन मेरा–
उलझनो में,
उलझते-उलझते 
बहुत उलझ गई ज़िंदगी।

ज़िंदगी "ज़िंदगी" नहीं 
उलझा माँझा लगती है कभी-कभी।

न ख़्वाहिश न उम्मीद, 
सुबह वही, शाम वही।
 
कुछ कर गुज़रने का ख़्याल भी कोसो दुर लगता है, 

लगता है, मानो मेरी पतंग काट गया कोई
और अब शायद नई मिलेगी भी नहीं।

हर बार ख़ुश होने पर छीन लेते है मुस्कुराने की वजह,

लगता है ज़िंदगी अब पहले जैसी हँसेगी भी नहीं,

नज़र शब्द तो सुना ही होगा 
बस वही लग गई है
शायद
अब कोई तंज बचेगा भी नहीं।
  
कोई झड़नी ही लगावा दो या कोई तावीज़ गले मे बंधवा दो 
शायद
मुस्कुराने कि वजह मिल जाए।

थोड़ी देर साथ बैठो ना  
कुछ बात करे
एक कप चाय ही पी ले 
शायद 
गुनगुनाने की कोई वजह मिल जाए।

मेहा अनमोल दुबे - उज्जैन (मध्यप्रदेश)

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