बंधन - कविता - डॉ॰ सरला सिंह 'स्निग्धा'

अपनों को ही मार रहा यह
लिए डोलता आयुध साज।

मिलता जो कमज़ोर उसे ही
हासिल करने की चाहत है।
कहाँ दया ही उसके दिल में
देता कब किसी को राहत है।
मार रहा है हर रोज़ हज़ारों
करता है ख़ुद पर वो नाज।

अपने बंधन में चाहे बाँधना
करता जाता कितने बर्बाद। 
है औक़ात नहीं उसकी यह
कर पाए जीवन को आबाद।
अपनों को ही मार रहा यह
लिए डोलता आयुध साज।

बूढ़े बच्चे नर नारी सब देखो
नित डोल रहे होकर बेहाल। 
मानव ही आज बना है भाई
अपने ही हित क्यों है काल।
बंधन में किसके बंधा हुआ 
डोल रहा मानव यह आज।

डॉ॰ सरला सिंह 'स्निग्धा' - दिल्ली

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