क़र्ज़ - कविता - रमेश चंद्र वाजपेयी

क़र्ज़ न करियो,
क़र्ज़ घटाता है
कुटुंब और ख़ुद का मान।
उधारी
दिन का चैन,
रात की नींद खोकर
निरुत्तर रहता है इंसान।
क़र्ज़ ही
तो है जो
अच्छे-खासे,
प्रेम को
करता है बर्बाद।
भाई-भाई 
और मित्रो में,
होता है
बाद विवाद।
क़र्ज़ से
लदा आदमी,
तिल-तिल हो
घुटता है।
अपने मान को
दाँव पर लगा
हर पल-पल झुकता है।
क़र्ज़ न
करियों भईया,
ख़ुशी से रहोगे
अगर मानोगे
मेरी बात।
जितनी चादर हो
उतने पाँव पसारना,
अगर मन में
न हो कोई घात।
माना क़र्ज़
कुछ विकास का 
आयाम देता है,
अगर विस्मृत
हो जाए क़र्ज़
तो वही मानव
ज़िंदगी भर रोता है।
उऋण नही 
हो सकता
माँ-बाप से,
जिन्होंने बचपन में
सेवा की तुम्हारी।
माँ-बाप की 
सेवा ख़ूब करो,
क्योंकि अब 
है तुम्हारी बारी।
धरती माता,
और मातृभूमि का,
निरंतर करते हो
निस्तार।
गर उऋण होना है,
इन दोनो से
तो माता का
करना है
स्वपन साकार।
भूल न जाना
इन सपूतों को,
देश की ख़ातिर 
जो कर गए बलिदान।
क़र्ज़ न करियो,
क़र्ज़ घटाता है
कुटुंब और ख़ुद का मान।

रमेश चन्द्र वाजपेयी - करैरा, शिवपुरी (मध्य प्रदेश)

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