अजायबघर - कविता - रवि तिवारी

पृथ्वी कितनी छोटी थी
जब हमारे पास
मिलने की आकांक्षा थी।

आकांक्षाएँ सिमटती रही
और एक दिन
बहुत दूर हो गए हमसे
हमारे ही शहर।

एक तरह का अज्ञातपन
बस गया है इधर,
पृथ्वी पर रिक्तता 
बढ़ती ही जा रही।

यह शहर अब अजायबघर है
पृथ्वी के केंद्र में,
जिसमें सुरक्षित कर लिए है चंद दिन
जो बचा लिए मैंने
तुमसे अलग होने की त्रासदी से पहले।

रवि तिवारी - अल्मोड़ा (उत्तराखंड)

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